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भूमिका : ११ आचार्य ने सोचा, राजनगर के श्रावक साधुओं के आचार को लेकर संदिग्ध हैं। उन्हें हर कोई नहीं समझा सकता। भिक्षु सूक्ष्म प्रतिभा का धनी है। वही इन्हें समझा सकता है। आचार्य ने सारी बात समझाकर राजनगर चातुर्मास के लिए भिक्षु को भेजा।
भिक्षु केवल शास्त्रज्ञ ही नहीं थे, व्यवहार-पटुता भी उनकी बेजोड़ थी। उन्होंने श्रावकों की मानसिक स्थिति का अध्ययन किया। श्रावक निर्दोष थे। वे साधुओं को इसलिए वंदना नहीं करते थे कि साधु चारित्र-शिथिलता का सेवन कर रहे हैं। श्रावक भिक्षु की प्रतिभा और वैराग्य पर भरोसा करते थे। प्रतिभा का सम्बन्ध मस्तिष्क से है और वैराग्य का हृदय से। विश्वास हृदय से जुड़ता है तभी उसका सम्बन्ध मस्तिष्क से होता है। भिक्षु का हृदय भी स्वच्छ था और मस्तिष्क भी स्वच्छ। इसलिए श्रावकों ने उनके परामर्श की अवहेलना नहीं की और वे साधुओं को वंदना करने लगे। किन्तु विश्वास का बोझ सिर पर लेना कोई कम बात नहीं है। भिक्षु उस बोझ से नत हो गए। उनका दायित्व बढ़ गया। उन्होंने प्रत्येक आगम को दो-दो बार पढ़ा। आगम की विधियों और साधु-समाज के व्यवहारों में उन्हें स्पष्ट अन्तर दीखा और वे इस खाई को पाटने के लिए आगे बढ़े। चातुर्मास समाप्त हुआ! आचार्य के पास आए। परिस्थिति का संकेत आचार्य तक पहुंच चुका था।
भिक्षु के साथ टोकरजी, हरनाथजी, वीरभाणजी और भारीमलजी-ये चार साधु और थे। वापस आते समय ये दो भागों में विभक्त होकर आए। भिक्षु ने वीरभाणजी से कहा- 'पहले पहुंच जाओ तो राजनगर की स्थिति की आचार्य के पास चर्चा न करना। मैं ही उसे समुचित ढंग से उनके
१. भिक्षु जस रसायण, २.१२ :
आप वैरागी बुद्धिवन्त छो, आपरी परतीत ।
तिण कारण वन्दणा करां, आप जगत् में बदीत ॥ २. वही, ३, दोहा ५-६ : ।
ओ दूधारो खांडो अछे, एहवी मन में धार। दोय-दोय बार सूत्रां भणी, वांच्या धर अतिः प्यार ॥ कहि कहि नें कितरों एक कहूं, संसार तणा उपगार अनेक। ग्यांन दरसण चारित ने तप बिना, मोप तग स्पा नहीं छे का
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