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१० : भिक्षु विचार दर्शन
पं. नाथूराम प्रेमी के अनुसार यह नाम श्वेताम्बर तेरहपंथ के उदय के पश्चात् प्रयुक्त होने लगा-"तेरहपंथ नाम जब प्रचलित हो गया, तब भट्टारकों का पुराना मार्ग बीसपन्थ कहलाने लगा। परन्तु यह एक समस्या ही है कि ये नाम कैसे पड़े और इन नामों का मूल क्या है। इनकी व्युत्पत्ति बतलाने वाले जो कई प्रवाद प्रचलित हैं, जैसे 'तेरह प्रकार के चारित्र को जो पाले' वह तेरापंथी और 'हे भगवान् यह तेरापंथ है' आदि, उनमें कोई तथ्य मालूम नहीं होता और न उनसे असलियत पर कुछ प्रकाश ही पड़ता है।"
“बहुत संभव है कि ढूंढकों (स्थानकवासियों) में से निकले हुए तेरहपंथियों के जैसा निन्दित बतलाने के लिए वे लोग जो भट्टारकों को अपना गुरु मानते थे तथा इनसे द्वेष रखते थे, इसके अनुगामियों को तेरापंथी कहने लगे हों और धीरे-धीरे उनका दिया हुआ यह कच्चा ‘टाइटल' पक्का हो गया हो, साथ ही वे स्वयं इनसे बड़े बीसपन्थी कहलाने लगे हों। यह अनुमान इसलिए भी ठीक जान पड़ता है कि इधर के लगभग सौ-डेढ़ सौ वर्ष के ही. साहित्य में तेरहपन्थ के उल्लेख मिलते हैं, पहले के नहीं।"१
श्वेताम्बर-परम्परा में तेरापंथ की स्थापना वि. संवत् १८१७ (आषाढ़ी पूर्णिमा) से हुई। इसके प्रवर्तक थे आचार्य भिक्षु । वे संवत् १८०८ में स्थानकवासी सम्प्रदाय (जिसका आरम्भ लोकाशाह की परम्परा में हुआ) में दीक्षित हुए और १८१६ में उससे सम्बन्ध-विच्छेद कर पृथक् हुए। उनकी दृष्टि में उस समय वह सम्प्रदाय चारित्रिक-शिथिलता से आक्रान्त हो गया था। आचार्य भिक्षु ने आगमों का अध्ययन किया, तब उन्हें लगा कि आज हमारा आचरण सर्वथा आगमानुमोदित नहीं है और सिद्धान्त-पक्ष भी विपरीत हैं। उनका अन्तर्द्वन्द्व अभी.प्रारम्भिक दशा में था। राजनगर (मेवाड़) के श्रावकों ने उसमें तीव्रता ला दी। आचार्य रुघनाथजी ने भिक्षु को भेजा था उन श्रावकों को समझाने के लिए और वे ले आए उनकी समझ को अपनी समझ का रूप देकर। भिक्षु की प्रतिभा पर आचार्य और श्रावक दोनों को भरोसा था।
१. जैन साहित्य और इतिहास, पृ. २६६-६७ । २. भिक्षु जश रसायण २, दोहा ६ :
सरधा पिण साची नहीं, असल नहीं आचार। इण विध करे आलोचना, पिण ट्रव्य गुरु सूं अति प्यार ।।
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