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भूमिका : ६
आचार की शिथिलता और उसके विरुद्ध क्रान्ति-यह क्रम दिगम्बर-परम्परा में भी चलता रहा है। भट्टारकों की क्रिया चैत्यवासियों से मिलती-जुलती है। वे भी उग्र-विहार को छोड़ मठवासी हो गए। एक ही स्थान में स्थायी रूप से रहने लगे। उद्दिष्ट भोजन करने लगे। लोहे का कमण्डलु रखना, कपड़े के जूते पहनना, सुखासन-पालकी पर चढ़ना आदि-आदि प्रवृत्तियां इनमें घर कर गईं। त्रिवर्णाचार, धर्मरसिक आदि ग्रन्थ रचे गए, उनमें जैन-मान्यताओं की निर्मम हत्या की गई। __षट्प्राभृत की टीका में भट्टारक श्रुतसागर ने लोंकाशाह के अनुयायियों को जी-भरकर कोसा है और शासन-देवता की पूजा का निषेध करने वालों को चार्वाक, नास्तिक कहकर समर्थ आस्तिकों को सीख दी है कि वे उन्हें ताड़ना दें। उसमें उन्हें पाप नहीं होगा।
इस भट्टारक-पंथ की प्रतिक्रिया हुई। फलस्वरूप 'तेरहपंथ' का उदय हुआ। विक्रम की सत्रहवीं शती (१६८३) में पंडित बनारसीदास जी ने भट्टारक विरोधी मार्ग की नींव डाली। प्रारम्भ में इसका नाम वाराणसीय या बनारसी मत जैसा रहा, किन्तु आगे चलकर इसका नाम तेरहपंथ हो गया। १. शतपदी (देखो जैन हिती, भाम ७, अंक ६) २. (क) त्रिवर्णाचार, ४..
जपो होमस्थता .. ., स्वाध्यायः पितृतर्पणम् ।
जिनपूजा श्रुताख्यान, न कुर्यात् तिलकं बिना ॥ (ख) धर्मरसिक, ३३ :
व्रतच्युतान्त्यजातीनां, दर्शने भाषणे श्रुते।
क्षुतेऽधोवातगमने, मुंभणे जपमुत्सृजेत् ॥ (ग) धर्मरसिक, ५६ :
अन्त्यजैः खनिताः कूपा, बापी पुष्करिणी सरः ।
तेषां जलं न तु ग्राह्य, स्नानपानाय च क्वचित् ॥ ३. षट् प्राभृत-मोक्ष प्राभृत टीका :
"उभय भ्रष्टा वेदितव्याः ते लौंकाः' (पृ. ३०५) "लौंकाः पातकिनः" (पृ. ३०५) “लौंकास्तु नरकादौ पतन्ति" (पृ. ३०६) "ते पापमूर्तयः श्वेताम्बराभासा लोकापकारकाय नामानो लौंकाः” (पृ. ३६६) "शासन देवता न पूजनीयाः इत्यादि ये उत्सूत्रं मन्यते ते मिथ्या-दृष्टयश्चार्वाका नास्तिकास्ते। यदि कदाग्रहं न मुञ्चन्ति
तदा समथैरास्तिकैरुपानद्भिः गूयलिप्ताभिर्मुखे ताडनीयाः, तत्र पापं नास्ति!' ४. युक्ति प्रबोध, १८ ।
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