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भूमिका : २५
आरोपित होता है। आत्मानुशासन से चलने वाला संगठन साधना में कुण्टा नहीं लाता।
आचार्य भिक्षु का संगठन केवल शक्ति-प्राप्ति के लिए नहीं है। वह आचार-शुद्धि के लिए है। आचार्य भिक्षु की दृष्टि में आचार की भित्ति पर अवस्थित संगठन का महत्त्व है। उससे विहीन संगठन का धार्मिक मूल्य नहीं है।
आचार्य भिक्षु के अनेक रूप हैं। उनमें उनके दो बहुत ही स्पष्ट और प्रभावशाली हैं
१. विचार और चारित्र-शुद्धि के प्रवर्तक । २. संघ-व्यवस्थापक।
प्रस्तुत ग्रन्थ में इन्हीं दो रूपों की स्पष्ट-अस्पष्ट रेखाएं हैं। इस कार्य में मुनि मिलापचन्दजी, सुमेरमलजी, हीरालालजी, श्रीचन्दजी और दुलहराजजी सहयोगी रहे हैं। मैंने केवल लिखा और शेष कार्य उन्हीं का है। आचार्य तुलसी की प्रेरणा या आशीर्वाद ही नहीं, उनके अन्तःकरण की कामना भी मुझे आलोकित कर रही थी। 'तेरापंथ-द्विशताब्दी-समारोह' पर उसके प्रवर्तक का परम यशस्वी और तेजस्वी रूप रेखांकित हो, यह पूज्य गुरुदेव को तीव्र मनोकामना थी। यह मेरा सौभाग्य है कि उसकी सफलता का निमित्त बनने का श्रेय मुझे दिया। आचार्यश्री की भावना और मेरे शब्दों से निर्मित आचार्य भिक्षु की जीवन-रेखाएं पथिकों के लिए प्रकाश-स्तम्भ बनें।
२०१६ मार्गशीर्ष वदि ३ श्रीरामपुर (रामपुरिया कॉटन मिल)
आचार्य महाप्रज्ञ
कलकत्ता।
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