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२६ : भिक्षु विचार दर्शन आज्ञा का अतिक्रमण करता है, वह शेष कार्य किसकी आज्ञा से करेगा?' __ आचार्य भिक्षु ने आज्ञा को व्यावहारिक रूप दिया। उनके संगठन का केन्द्र-बिन्दु आज्ञा है। उनकी भाषा में आज्ञा की आराधना, संयम की आराधना है और उसकी विराधना संयम की विराधना है। उनका संगठन विश्व के सभी संगठनों से शक्तिशाली है, उसका शक्ति-स्रोत है आचार। आचार्य भिक्ष के शब्दों में भगवान महावीर की आज्ञा का सार है-आचार। आचार शुद्ध होता है तो विचार स्वयं शुद्ध हो जाते हैं। विचारों में आग्रह या अपवित्रता तभी आती है, जब आचार शुद्ध नहीं होता।
'आचारवान् से मिलो, अनाचारी से दूर रहो'-आचार्य भिक्षु के इस घोष ने संगठन को सुदृढ़ बना दिया।
'श्रद्धा या मान्यता मिले तो साथ रहो, जिनसे वह न मिले, उन्हें रखकर संगठन को दुर्बल मत बनाओ'-आचार्य भिक्षु के इस सूत्र ने संगठन को प्राणवान् बना दिया। एक ध्येय, एक विचार, एक आचार और एक आचार्य-यह है संक्षेप में उनके संगठन का आन्तरिक स्वरूप।
आचार्य भिक्षु ने इसकी सदा याद दिलाई
१. साधुओं का साध्य है आत्म-मुक्ति अर्थात् पूर्ण पवित्रता की उपलब्धि ।
२. उनकी साधना है अहिंसा, जो स्वयं पवित्र है। ३. उनका साधन है आत्मानुशासन, जो स्वयं पवित्र है।
यह साध्य, साधना और साधन की पवित्रता साधु-समाज का नैसर्गिक रूप है। इसमें कोई बाधा उत्पन्न न हो, इसलिए आचार्य भिक्षु ने एक संगठन का सूत्रपात किया। चरित्र विशुद्ध रहे, साधु शिष्यों के लोलुप न बनें और परस्पर प्रगाढ़ प्रेम रहे-यही है उनकी संघ-व्यवस्था का उद्देश्य।
संगठन अच्छा भी होता है और बुरा भी। शक्ति का स्रोत होने के कारण वह अच्छा भी होता है। उससे साधना की गति अबाध नहीं रहती; इसलिए वह बुरा भी होता है। साधना कुण्ठित वहां होती है, जहां अनुशासन १. उपदेशमाला, श्लोक ५०५
आणाए च्चिय चरणं तब्भंगे जाण किं न भग्गंति?।
आणं च अइक्कतो, कस्साएसा कुणइ सेसंता २. लिखत : १८३२।।
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