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११४ : भिक्षु विचार दर्शन हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी-सभी धर्म यही कहते हैं कि मनुष्य के शरीर के लिए इतने जीवों की जान लेने की जरूरत नहीं है।' ..
युद्ध में लड़ने वाले सिपाहियों की सेवा को भी युद्ध को प्रोत्साहन देना माना है।
आचार्य भिक्षु ने कहा-असंयमी की सेवा असंयम को और संयमी की सेवा संयम को प्रोत्साहन देती है। इन दृष्टियों से यह स्पष्ट है कि सेवा न तो अध्यात्म के सर्वथा अनुकूल है और न सर्वथा प्रतिकुल। सामाजिक भूमिका में रहनेवालों के लिए समाज-सेवा का निषेध नहीं हो सकता, भले फिर वह असंयम की सीमा में ही क्यों न हो। मनियों के लिए भी समाज-सेवा का सर्वथा विधान नहीं किया जा सकता, क्योंकि उनकी भी अपनी कुछ सीमाएं हैं।
समाज और अध्यात्म की रेखाएं समानान्तर होते हुए भी मिलती नहीं है। सामाजिक प्राणी के लिए असंयम की निवृत्ति की उपयोगिता है और वह भी एक सीमा तक। पर आध्यात्मिक प्राणी के लिए असंयम की निवृत्ति परम धर्म है और वह भी निस्सीम रूप में। प्रवृत्ति और निवृत्ति की भाषा और उनका महत्त्व सबके लिए एक-रूप नहीं है।
* दया शब्द दो भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है। एक भावना सामाजिक है और दूसरी धार्मिक। समर्थ व्यक्ति असमर्थ व्यक्ति के कष्टों से द्रवित हो उठता है, यह दीन के प्रति उत्कृष्ट की सहानुभूति है। इस भावना की अभिव्यक्ति दया शब्द से होती है। एक व्यक्ति समर्थ या असमर्थ सभी जीवों को कष्ट देने का प्रसंग आते ही द्रवित हो जाता है। यह एक आत्मा की शेष सब आत्माओं के प्रति समता की अनुभूति है। इस भावना की अभिव्यक्ति भी दया शब्द से होती है इसलिए यह कहना उचित है कि दया शब्द दो भावओं का प्रतिनिधि है। द्रवित होने के बाद दो कार्य हैं-कष्ट न देना और कष्टों का निवारण करना। कष्ट न देना, यह सर्वसम्मत है
और कष्टों का निवारण करना इसमें कई प्रश्न उपस्थित होते हैं। इसलिए आचार्य भिक्षु ने कहा-सब टया-दया पुकारते हैं। दया धर्म सही है पर
१. हिन्दी स्वराज्य, पृ. ६२ २. हिन्दी नवजीवन, २० सितम्बर, १६२८ का अंक
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