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मोक्ष-धर्म का विशुद्ध रूप : ११५ मुक्ति उन्हीं को मिलेगी जो उसे पहचान कर उसका पालन करेंगे। दया के नाम के भूलावे में मत आओ। गहराई में पैठो, उसे परखो।
कष्ट-निवारण क्यों किया? कैसे किया जाए? और किसका किया जाए? इसका एक उत्तर नहीं है।
समाज-धर्म की भूमिका से इनका उत्तर मिलता है-कष्टों का निवारण जीवों को सुखी बनाने के लिए किया जाए, जैसे-तैसे किया जाए और मनुष्यों का किया जाए और जहां मनुष्य-जाति के हित में बाधा न पड़े, वहां औरों का भी किया जाए। ___ आत्म-धर्म की भूमिका से इनका उत्तर मिलता है-कष्टों का निवारण आत्मा को पवित्र बनाने के लिए किया जाए, शुद्ध साधनों के द्वारा किया जाए और सबका किया जाए।
व्यास के शब्दों में अष्टादश पुराणों का सार यह है कि परोपकार से पुण्य होता है और पर-पीड़न से पाप।
किन्तु यह एक सामान्य सिद्धान्त है दूसरों को पीड़ित नहीं करना चाहिए, यह संयमवाद है। इसलिए आत्म-धर्म की भूमिका में यह सर्वथा स्वीकार्य है, वैसे समाज-धर्म की भूमिका में नहीं है। समाज के क्षेत्र में असंयम को भी स्थान प्राप्त है। दूसरों का उपकार करना चाहिए, यह समाजवाद है। इसलिए समाज-धर्म की भूमिका में यह सर्वथा स्वीकार्य है, वैसे आत्म-धर्म की भूमिका में नहीं है।
आत्म-धर्म के क्षेत्र में असंयम को स्थान प्राप्त नहीं है। समाज के क्षेत्र में असंयम का सर्वथा परिहार नहीं हो सकता। और धर्म के क्षेत्र में असंयम का अंशतोऽपि स्वीकार नहीं हो सकता। इस दृष्टि को ध्यान में रखकर आचार्य भिक्षु ने दया और उपकार को दो भागों में विभक्त किया-लौकिक दया और लोकोत्तर दया; लौकिक उपकार और लोकोत्तर उपकार, समाज धर्म और आध्यात्मिक धम् ।
जिसमें संयम और असंयम का विचार प्रधान न हो, किन्तु करुणा ही प्रधान हो, वह लौकिक दया है। जहां करुणा संयम से अनुप्राणित हो, वह
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१. अणुकम्पा : ८, दू. १: २. वही, १, दू. ४ :
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