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१०४ : भिक्षु विचार दर्शन टला है।
एक सेठ की दो पत्नियां थीं। एक धार्मिक थी और दूसरी धर्म का मर्म नहीं जानती थी। सेठ विदेश गया हुआ था। अकस्मात् वहीं उसकी मृत्यु हो गई। घर पर समाचार आया। एक पत्नी फूट-फूटकर रोने लगी। दूसरी पत्नी, जो धार्मिक थी, नहीं रोयी। उसने समभाव रखा। लोग बहुत आए। सबने देखा-एक पत्नी रो रही है, दूसरी शान्त है। लोगों ने उसे सराहा, जो रो रही थी। जो नहीं रो रही थी, उसकी निन्दा की। उन्होंने कहा- 'जो रोती है, वह पतिव्रता है, उसे पति के मरने का कष्ट हुआ है। यह पतिव्रता नहीं है, इसे पति के मरने का कोई कष्ट नहीं है, भला यह क्यों रोये? यह तो चाहती थी कि पति मर जाए, फिर इसके आंसू क्यों आएं?' संयोगवश साधु भी उधर से चले गये। उन्होंने उसे सराहा जो समभाव से बैठी थी। लौकिक दृष्टि से देखने वालों को वह अच्छी लग रही थी जिसकी आंखों में आंसू थे। लोकोत्तर दृष्टि से देखने वालों को वह अच्छी लग रही थी जिसकी आंखों में समभाव लहरा रहा था। यह अपना-अपना दृष्टिकोण है।
कोई गृहस्थ किसी साधु से व्रत लेकर अपने घर जाने लगा। बीच में दो मित्र मिले, एक ने कहा-जो व्रत लिया है, वह अच्छी तरह से पालना। दूसरे ने कहा-शरीर का ध्यान रखना, कुटुम्ब का प्रतिपालन करना। इन दोनों मित्रों में जो व्रत में दृढ़ रहने की सलाह देता है, वह धर्म का मित्र है और जो अव्रत के सेवन की सलाह देता है, वह धार्मिक मित्र नहीं है।
१. अणुकम्पा, ५.१८, १६ :
हिवे साध कहे तुमे सांभलो, छ काया रे हो साता किण विध थाय। सुभ असुभ बांध्या ते. भोगवे, नहीं पाम्या हो त्यां मुगत उपाय।। हणवां सूसकीया छ कायना, तिणरे टलीया हो मेला असुभ कर्म पात ।
ग्यानी जाणे साता हुई एहने, मिट गया हो जनम मरण संताप। २. भिक्खु दृष्टान्त, १३०, पृ. ५५ ३. व्रताव्रत, २.२३-२७ :
जगन मझिम उतकष्टा श्रावक, तीनां री एकज पांतो रे। इविरत छे सगला री माठी, तिणमें म राखो भ्रांतो रे।। कोई श्रावक ना व्रत ले साधां पे, आयो जिण दिस जायो रे। मार्ग मां दोय मिंत्री मिलिया, ते बोल्या जूदी-जूदी वायो रे॥
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