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३० : भिक्षु विचार दर्शन है। मुझे कहीं रुकना पड़ेगा'-ठाकुर साहब ने कहा। भीखणजी ने सोचा, आगे दूर जाना है। साथी को जंगल में अकेले छोड़ना भी उचित नहीं। तम्बाकू के बिना ये चल नहीं सकेंगे। भीखणजी ने कहा-"ठाकुर साहब, धीमे-धीमे चलिए, दिन थोड़ा है। मैं तम्बाकू की खोज करता हूं, कहीं आस-पास में किसी पथिक के पास मिल जाए।" ठाकुर साहब को थोड़ा साहस बंधा। वे धीमे-धीमे आगे चले। भीखणजी पीछे रह गए। उन्होंने एक कण्डा लिया और उसकी बुकनी की पुड़िया ठाकुर साहब के हाथ में थमा दी। ठाकुर साहब जम्हाइयां ले ही रहे थे। उस पुड़िया को खोलते ही खिल उठे। भीखणजी ने कहा-'अच्छी तो है नहीं, ऐसी है, पर काम चल जाएगा।' ठाकुर साहव ने थोड़ी-सी-चुटकी भर सूंघी और सहसा बोल उठे- 'भीखणजी! अच्छी ही है।' ठाकुर साहब की गति में वेग आ गया। मार्ग कटता गया। वे दिन रहते-रहते घर पहुंच गए। २. श्रद्धा और बुद्धि का समन्वय कहीं श्रद्धा होती हैं, बुद्धि नहीं होती; कहीं बुद्धि होती है, श्रद्धा नहीं होती। कहते हैं, श्रद्धा अन्धी होती है, बुद्धि लंगड़ी। श्रद्धालु चलता है, बुद्धिमान देखता है। ये दोनों अधूरे हैं। पूर्णता इनके समन्वय से आती है। साधक अपने-आपको पूर्ण नहीं मानता; वह सिद्ध होने पर ही पूर्ण होता है। पर जिसके जीवन में श्रद्धा और बुद्धि का समन्वय हो, उसकी गति साध्य की दिशा में होती है, इसलिए उसे पूर्ण कहा जा सकता है। आचार्य भिक्षु का जीवन श्रद्धा और बुद्धि के समन्वय का सुन्दर उदाहरण है। ___मारवाड़ का यह चाणक्य थोड़े ही समय के बाद धर्मदूत बन गया। जोधपुर के राजा विजयसिंह के मंत्री आचार्य भिक्षु के पास आए। विश्व सादि-सान्त है या अनादि-अनन्त, यह प्रश्न पूछा। आचार्य भिक्षु ने उन्हें इसका समाधान दिया। संतोषजनक समाधान पाकर मंत्री ने कहा--'आपकी बुद्धि कई राज्यों का संचालन करे; वैसी है।' मंत्री की इस प्रशंसा का उत्तर आचार्य भिक्षु ने एक पद्य में दिया, जो इस प्रकार है:
बुद्धि जिणां री जाणियै, जे सेवै जिन-धर्म ।
और बुद्धि किण काम री, जो पड़िया बांधे कर्म॥ १. भिक्खु दृष्टान्त, १११, पृ. ४७
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