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________________ १. व्यक्तित्व की झांकी जैन-परम्परा में आचार्य भिक्षु का उदय एक नये आलोक की सृष्टि है। वे (वि. १७८३) इस संसार में आए, (वि. १८०८) स्थानकवासी मुनि बने; (वि. १८१७) तेरापंथ का प्रवर्तन किया और (वि. १८६०) इस संसार से चले गए। उनका जीवन तीन प्रकार की विशिष्ट अनुभूतियों का पुंज है। मारवाट की शुष्क-भूमि में उनका मस्तिष्क कल्पतरु बन फल सका, यही उनकी अपनी विशेषता है। वे विद्यालय में छात्र नहीं बने, विद्या ने स्वयं उनका वरण किया। वे काव्यकला के ग्राहक नहीं बने, कविता ने स्वयं उनके चरण चूमे। वे कल्पना के पीछे नहीं दौड़े, कल्पना ने स्वयं उनका अनुगमन किया। मैं श्लाघा के शब्दों में उनके जीवन को ससीम बनाना नहीं चाहता। मैं चाहता हूं कि उनके असीम व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति उनके विचारों से ही हो। मेरे पाठक उनको केवल जैन-आचार्य की भूमिका में ही नहीं पढ़ पाएंगे, मैं उन्हें अनेक भूमिकाओं के मध्य में से लेता चलूंगा; चढ़ाव-उतार के लिए सन्तुलन उन्हें रखना होगा। १. समय की सूझ व्यक्ति में सबसे बड़ा बल श्रद्धा का होता है। श्रद्धा टूटती है तो पैर थक जाते हैं, वाणी रुक जाती है और शरीर जड़ हो जाता है। श्रद्धा बनती है तो ये सब गतिशील बन जाते हैं। एक ठाकुर और भीखणजी मार्ग में साथ-साथ जा रहे थे। ठाकुर साहब को तम्बाकू का व्यसन था। बीच में ही तम्बाकू निबट गई। उनके पैर लड़खड़ाने लगे। “भीखणजी! तम्बाकू के बिना चलना बड़ा कठिन हो रहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003095
Book TitleBhikshu Vichar Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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