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क्षीर-नीर : १३५ जीव का घात नहीं हुआ, फिर भी वह हिंसक है, उसके पाप-कर्म का बन्धन होता है।
जहां जीवों का घात हुआ, वहां पाप का बन्धन नहीं हुआ और जहां जीवों का घात नहीं हुआ, वहां पाप का बन्धन हुआ, यह आश्चर्य की बात है। परन्तु भगवान् की वाणी का यही रहस्य है। ___संयमी मुनि नदी को पार करते हैं। उसमें जीव-घात होता है। उस कार्य में हिंसा का दोष होता तो भगवान उसकी अनुमति नहीं देते। जहां भगवान् की अनुमति हैं वहां हिंसा का दोष नहीं है। जहां आत्मा का प्रयोग प्रशस्त होता है, हिंसा का दोष नहीं होता, वहीं भगवान् की अनुमति होती
देह के रहते हुए जीव-घात से नहीं बचा जा सकता, किन्तु अहिंसा की पूर्णता आ सकती है। वीतराग या सर्वज्ञ के द्वारा भी जीव-घात हो जाता है। पर उनका संयम अपूर्ण नहीं होता, उनकी अहिंसा अधूरी नहीं होती। अवीतराग-संयमी के भी पूर्ण अहिंसा की साधना होती है। हिंसा और अहिंसा का मूल स्रोत, आत्मा की असत और सत प्रवृत्ति है। जीव-घात या जीव-रक्षा उनकी कसौटी नहीं है। यह व्यवहारिक दृष्टि है। जहां प्रवृत्ति असत् होती है और जीव-घात भी होता है, वहां व्यवहार और निश्चय दोनों दृष्टियों से हिंसा होती है। जहां प्रवृत्ति सत् होती है और जीव-घात भी नहीं होता वहां व्यवहार और निश्चय दोनों दृष्टियों से अहिंसा होती है। जहां
१. जिन आज्ञारी चौपाई, ३.३१ :
जो ईर्या सुमत विण साधु चाले, कदा जीव मरे नहीं कोय।
तो पिण साध ने हिंसा छकाय री लागी, पाप तणो बन्ध होय॥ २. वही, ३.३२ :
जीव मूंआ तिहां पाप न लागो, न मूंआ तिहां लागो "पापो। जिण आगम संभालो जिन आगना जोवो, जिण आग्या में पापो म थापो रे॥ ३. वही, ३.१८-२०
साध नदी उतऱ्या माहे दोष हुवे तो, जिण आगन्यां दे नाहि। जिण आगन्यां देतां पाप नहीं छे, थे सोच देखो मन मांहि रे॥ नदी उतरे त्यांरो ध्यान कीसो छे, किसी लेश्या किसा परिणाम। जोगं किसा अधवसाय किसो छे, भला भंडां री करो पिछाण रे।। ए पांचूं भला छे तो जिण आगना छे, माठा में जिण आग्या न कोय। ए पांचूं माठा तूं पाप लागे छे, भला सूं पाप न होय रे॥
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