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१३६ : भिक्षु विचार दर्शन
प्रवृत्ति सत् होती है और जीव-घात हो जाता है, वहां निश्चय-दृष्टि से अहिंसा और व्यवहार- दृष्टि हिंसा होती है। जहां प्रवृत्ति असत् होती है और जीव-घात नहीं होता, वहां निश्चय दृष्टि से हिंसा और व्यवहार-दृष्टि से अहिंसा होती है । जैसे व्यवहार- दृष्टि की अहिंसा से धर्म नहीं होता, वैसे ही व्यवहार-दृष्टि की हिंसा से पाप नहीं होता । जैसे जीव - घात होने पर भी व्यावहारिक हिंसा बन्धन - कारक नहीं होती, वैसे ही जीव रक्षा होने पर भी व्यावहारिक अहिंसा मुक्ति-कारक नहीं होती ।
कई लोग इसीलिए सिंह आदि हिंस्र जीवों को मारने में धर्म मानते हैं कि एक को मारने में अनेकों की रक्षा होती है । दूसरी बात, जो जीव- रक्षा को अहिंसा का उद्देश्य बतलाते हैं, उन्हें पग-पग पर रुकना पड़ता है I जीव रक्षा के लिए जीवों को मारने का भी प्रसंग आ जाता है। अहिंसा का ध्येय जीव रक्षा हो तो साधन-शुद्धि का विचार सुरक्षित नहीं रहता । आत्मशुद्धि का साधन शुद्ध ही होता है । जीव-रक्षा को अहिंसा का ध्येय मानने वालों की कठिनाई का आचार्य भिक्षु ने इन शब्दों में चित्र खींचा है - "कभी तो वे जीवों की रक्षा में पुण्य कहते हैं और कभी वे जीवों की घात में पुण्य कहते हैं, यह बड़ा विचित्र मत है ।' चोर चोरी की वस्तु को लुक-छिपाकर बेचता है, वह प्रकट रूप में नहीं बेच सकता। उसी प्रकार एक जीव की रक्षा के लिए दूसरे जीवों का घात करने में पुण्य मानते हैं, वे इस मत को प्रकट करते हुए सकुचाते हैं। जो जीवों की रक्षा को अहिंसा का ध्येय मानते हैं, उन्हें बड़े जीवों की रक्षा के लिए छोटे जीवों की घात में पुण्य मानना पड़ता है और वे मानते भी हैं इसीलिए आचार्य भिक्षु ने जीव- रक्षा को अहिंसा का ध्येय नहीं माना ।
जर्मन विद्वान् अलबर्ट स्वीजर भी इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि भगवान् महावीर के अनुसार अहिंसा संयम की उपज है । संयम या आत्मिक पवित्रता से सम्बन्धित होने के कारण ही वह पवित्र है । अहिंसा का सिद्धान्त जहां
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१. व्रताव्रत, १७.३८ :
कदे तो पुन कहे जीव खवायां, कदे कहे जीव बचायां पुन । यां दोयां रो निरणो न कीयो विकलां, यूं ही बके गेहला ज्यूं हीयांसून ||
वही, १७.३६
२.
चोर चोरी री वसत छाने छाने बेचे, चोडे धाडे तिण सूं बेचणी नावे | ज्यूं जीव खवायां पुन कहे त्यासूं, चोडे लोकां में बतावणी नावे ॥
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