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________________ क्षीर-नीर : १३७ करुणा या जीव-रक्षा से जुड़ जाता है, वहां अहिंसा लोकप्रिय बनती है, पर पवित्र नहीं रह सकती। आत्म-शुद्धि का मतलब है, असंयम से बचना। असंयम से बचने और अहिंसा को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। जहां असंयम से बचाव है, वहां अहिंसा है और जहां अहिंसा है, वहा असंयम से बचाव है, किन्तु जीव-रक्षा का अहिंसा के साथ ऐसा संबंध नहीं है। अहिंसा में जीव-रक्षा हो सकती है, पर उसकी अनिवार्यता नहीं है। आचार्य भिक्षु ने इस दृष्टिकोण को तीन उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया है। १. एक सेठ की दुकान में साधु ठहरे हुए थे। करीब रात के बारह बज रहे थे। गहरा सन्नाटा था। निःस्तब्ध वातावरण में चारों ओर मूक शांति थी। चोर आए, सेठ की दुकान में घुसे । ताला तोड़ा। धन की थैलियां ले, मुड़ने लगे। इतने में उनकी निःस्तब्धता भंग करने वाली आवाज आयी-भाई! तुम कौन हो? उनको कुछ कहने या करने का मौका ही नहीं मिला कि तीन साधु सामने आ खड़े हो गए। चोरों ने देखा-साधु हैं, उनका भय मिट गया और उत्तर में बोले-महाराज! हम हैं। उन्हें यह विश्वास था कि साधुओं के द्वारा हमारा अनिष्ट होने का नहीं। इसलिए उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा-महाराज! हम चोर हैं। साधुओं ने कहा-भाई! इतना बुरा काम करते हो, यह ठीक नहीं। साधु बैठ गये और चोर भी। अब दोनों का संवाद चला। साधुओं ने चोरी की बुराई बताई और चोरों ने अपनी परिस्थिति। बहुत समय बीत गया। दिन हो चला। आखिर चोरों पर उपदेश असर कर गया। उनके हृदय में परिवर्तन आया। उन्होंने चोरी को आत्म-पतन का कारण मान उसे छोड़ने का निश्चय कर लिया। चोरी न करने का नियम भी कर लिया। अब वे चोर नहीं रहे। इसलिए उन्हें भय भी नहीं रहा। कुछ उजाला हुआ, लोग इधर-उधर घूमने लगे। वह सेठ भी घूमता-घूमता अपनी दुकान के पास से निकला। टूटे ताले और खुले किवाड़ देख कर अवाक्-सा हो गया। तुरन्त ऊपर आया और देखा कि दुकान की एक बाजू में चोर बैठे साधुओं से वातचीत कर रहे हैं और उनके पास धन की थैलियां पड़ी हैं। सेठ को वहुत आशा बंधी। कुछ कहने जैसा हुआ, इतने में चोर बोले-सेठजी! यह आपका धन सुरक्षित है, चिन्ता न करें। यदि आज ये साधु यहां न होते तो आप भी करीव-करीब साधु जैसे बन जाते। यह मुनि के उपदेश का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003095
Book TitleBhikshu Vichar Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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