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१३४ : भिक्षु विचार दर्शन करता है, तालाब जल से परिपूर्ण रहता है; कोई आदमी मिठाई न खाने का व्रत करता है, मिठाई बचती है; कोई आदमी दव-आग लगाने और गांव जलाने का त्याग करता है, गांव और जंगल की सुरक्षा होती है; कोई आदमी चोरी करने का त्याग करता है, दूसरों के धन की रक्षा होती है। ... वृक्ष आदि सुरक्षित रहते हैं, वह अहिंसा का परिणाम है, उद्देश्य नहीं है।
जीव-रक्षा अहिंसा का परिणाम हो सकता है, होता ही है, ऐसी बात नहीं। पर उसका प्रयोजन नहीं है। नदी के जल से भूमि उपजाऊ हो सकती है। पर नदी इस उद्देश्य से बहती है, यह नहीं कहा जा सकता। ' अहिंसा का उद्देश्य क्या है? आत्मशुद्धि या जीव-रक्षा? इस प्रश्न पर सब एकमत नहीं हैं। कई विचारक अहिंसा के आचरण का उद्देश्य जीव रक्षा बतलाते हैं और कई आत्मशुद्धि। ऐसा भी होता है कि जीव-रक्षा होती है, और आत्मशुद्धि नहीं होती, संयम नहीं होता और ऐसा भी होता है कि आत्मशुद्धि होती है, संयम होता है, जीव-रक्षा नहीं होती। अहिंसा जीव-रक्षा के लिए हो तो आत्मशुद्धि या संयम की बात गौण हो जाती है। आचार्य भिक्षु ने कहा-अहिंसा में जीव-रक्षा की बात गौण है, मुख्य बात है, आत्मशुद्धि की। एक संयमी सावधानीपूर्वक चल रहा है। उसके पैर से कोई जीव मर गया तो भी वह हिंसा का भागी नहीं होता, उसके पाप-कर्म का बन्धन नहीं होता। एक संयमी असावधानीपूवर्क चल रहा है। उसके द्वारा किसी भी
१. अणुकम्पा, ५.१२-१५ :
नींब आंबादित निरष नो, किण ही कीधो हो वाढण रो नेम। सर द्रह तलाव फोडण तणों, सूंस लेइ हो मेट्या आवता कर्म। इविरत घटी तिण जीव नी, विरष उभो हो तिणरो धर्म केम। सर द्रह तालाब भा रहें, तिण माहि हो नहीं जिणजी रो धर्म॥ लाडू घेवर आदि पकवान ने, खाणा छोड्या हो आतम आणी तिण ठाय। वेराग वध्यो तिण जीव रे, लाडू रह्यो हो तिणरो धर्म ना थाय॥ दव देवो गांम जलायवो, इत्यादिक हो सावध कार्य अनेक।
ए सर्व छोडावे समझाय नें, सगला री हो विध जाणो तूमें एक। २. जिन आज्ञारी चौपाई, ३.३०
इरजा सुमत चालंतां साधने, कदा जीव तणी हुवे घात। ते जीव मूंआ रो पाप साध ने, लागे नहीं अंसमात रे॥
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