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________________ प्रतिध्वनि : ५३ अनुभव होता है कि वे मोक्ष-धर्म और जीवन-व्यवहार के बीच भेद-रेखा खींच रहे हैं। धर्म का आधार विरक्ति है और उसकी परिणति है त्याग। त्याग उतना ही होता है जितनी विरक्ति होती है। विरक्तिशून्य त्याग, त्याग ही नहीं होता है और यह भी नहीं होता कि विरक्ति हो और त्याग न हो। सब जीवों का मनोभाव समान नहीं होता। किसी की पदार्थों में अनुरक्ति होती है और किसी की विरक्ति। अनुरक्त के विचार विरक्त को अद्भुत-से लगते हैं और विरक्त के विचार अनुरक्त को। यह अद्भुतता सापेक्ष है। अपनी-अपनी स्थिति में कोई अद्भुत नहीं है। ३. चिन्तन की धारा पांव के रोगी को खुजलाना अच्छा लगता है, पर जिसे पांव नहीं हैं उसे वह अच्छा नहीं लगता। जिसमें मोह है, उसे भोग प्रिय लगता है। जो मोह के जाल से दूर है, उसे लगता है, भोग मोक्ष की बाधा है।' अनुभूति भिन्न होती है और उसका भी हेतु भिन्न होता है। हमारी अनुभूति आत्म-मुक्ति की ओर झुकी हुई होगी तो हम आचार्य भिक्षु के चिन्तन को यथार्थ पाएंगे और हमारी अनुभूति पदार्थोन्मुख होगी तो वह हमें अटपटा-सा लगेगा। आचार्य भिक्षु की वाणी है- “जो सांसारिक उपकार हैं, वे मोहवश किए जाते हैं। सांसारिक जीव उनकी प्रशंसा करते हैं, साधु उनकी सराहना नहीं करते। इन सांसारिक उपकारों में जिन-धर्म का अंश भी नहीं है। जो इनमें धर्म बतलाते हैं, वे मूढ़ हैं।" यह धार्मिक तथ्य है। इसकी अभिव्यक्ति १. नव पदारथ : १२, ३-५ . संसार नां सुख तो छ पुद्गल तणां रे, ते तो सुख निश्चे रोगीला जाण रे। ते करमा वस गमता लागे जीव ने रे, त्यां सुखां री बुधिवंत करो पिछाण रे॥ पांव रोगीलो हुवे तेहने रे, अनंत मीठी लागे छे खाज रे। एहवा सुख रोगीला छे पुन तणां रे, तिण सूं कदेय न सीझे आतम काज रे।। एहवा सुखां सूं जीव राजी हुवे रे, तिणरे लागे छे पाप करम रा पूर रे। पछे दुःख भोगवे छे नरक निगोद में रे, मुगति सुखां सूं पडिये दूर रे॥ २. अणुकम्पा : ११, ३८-३६ जितरा उपगार संसार तणां छे, जे जे करे ते मोह बस जाणों। साध तो त्याने कदे न सरावे, संसारी जीव तिणरा करसी बखाणों। संसार तणां उपगार कीया में, जिण धर्म रो अंस नहीं छे लिगार। संसार तणां उपगार कीयां में. धर्म कहे ते तो मढ गिंवार॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003095
Book TitleBhikshu Vichar Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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