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५४ : भिक्षु विचार दर्शन करते हुए उनकी अन्तरात्मा में कभी कंपन नहीं हुआ। सांसारिक उपकार में जो व्यावहारिक लाभ हैं उनकी उन्हें स्पष्ट अनुभूति थी। उसका उन्होंने मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है। जो व्यक्ति किसी जीव को मृत्यु से बचाता है, उसके साथ उसका स्नेह-बन्ध हो जाता है। इस जीवन में ही नहीं, किन्तु आगामी जन्म में भी उसे देखते ही स्नेह उत्पन्न होता है। जो व्यक्ति किसी जीव को मारता है उसके साथ उसका द्वेष-बन्ध हो जाता है। पर-जन्म में भी उसे देखकर द्वेष-भाव उभर आता है। मित्र के साथ मित्रता और शत्रु के साथ शत्रुता चलती जाती है। ये दोनों राग-द्वेष के भाव हैं, ये धर्म नहीं
कोई अनुकंम्पावश किसी का सहयोग करता है और कोई किसी के कार्य में विघ्न डालता है। ये राग और द्वेष के मनोभाव हैं। इनकी परम्परा बहुत लम्बी होती है। आत्म-मुक्ति का सहयोग ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के द्वारा ही किया जा सकता है।
एक दिन मुनि खेतसीजी को अतिसार हो गया। आचार्य भिक्षु उनकी परिचर्या में बैठे थे। खेतसीजी कुछ स्वस्थ हुए। उन्होंने स्वामीजी से कहा-सती रूपांजी का ध्यान विशेष रखियेगा। आपने कहा-बहन की चिन्ता मत करो। तुम अपना मन समाधि में रखो। उन्होंने अन्तिम समय
१. अणुकम्पा, ११ ४३ :
जीव में जीवां बचावें तिण सुं, बन्ध जावे तिणरो राग सनेह ।
जो पर भव में ऊ आय मिले तो, देखत पांण जागे तिण सूं नेह।। २. वही, ११, ४४ :
जीव में जीव मारे छे तिण सूं, बन्ध जाओ तिण तूं धेष वशेख।
ते पर में ऊ आय मिले तो, देखत पांण जागे तिण तूं धेष। ३. वहीः ११, ४५ : मित्री तूं मित्रीपणों चलीयो जावे, वेरी सूं वेरीपणों चलीयो जावे।
ओ तो राग धेष कर्मा रा चाला, ते श्री जिण धर्म मांहें नहीं आवे॥ ४. वही : ११, ४६-५०
कोइ अणुकम्पा आणी घर मंडावे, कोइ मंडता घर ने देवे भंगाय।
ओ प्रतख राग ने धेप उघाडी, ते आगे लगा दोनूं चलीया जाय। कहि-कहि में किंतरो एक कहूं, संसार तणा उपगार अनेक।
ग्यांन दरसण चारित ने तप बिना, मोक्ष तणों उपगार नहीं छे एक॥ ५. भिक्ख दष्टांत : २५३. प. १०१
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