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________________ प्रतिध्वनि : ५५ में मुनि रायचन्द जी को यही सीख दी-"तुम बालक हो। मोह मत लाना।" चौबीस वर्ष की युवावस्था में भिक्षु अपनी पत्नी-सहित ब्रह्मचारी बन गए और दोनों ही एकान्तर तप (एक दिन उपवास और एक दिन आहार) करने लगे। बीच में पत्नी का देहान्त हो गया। आप अकेले ही मुनि बने, अपने साध्य की सिद्धि के लिए सतत जागरूक रहे। ४. नैसर्गिक प्रतिभा आचार्य भिक्षु सहज प्रतिभा के धनी थे। उन्हें, पढ़ने को बहुत कम मिला। मनचाही प्रतियां सुलभ नहीं थीं। वह प्रकाशन का युग नहीं था। उन्हें सब जैन आगम भी उपलब्ध नहीं थे। उन्हें 'भगवतीसूत्र' की. प्रति बड़े प्रयत्न के बाद मिली। उन्होंने आगमों को अनेक बार पढ़ा, आगम उनके हृदयंगम-से हो गये। उन्होंने गंभीर तत्त्वों को बड़े सरल ढंग से समझाया। प्रश्नों का समाधान भी वे बड़े अनोखे ढंग से देते। एक व्यक्ति उनसे चर्चा कर रहा था। उसकी बुद्धि स्वल्प थी। लोगों ने बहुत आग्रह किया कि आप इसे समझाइए। आपने कहा-मूंग, मोठ और चने की दाल होती है, पर मेहूं की दाल कैसे हो? जिसमें समझने की क्षमता ही नहीं, उसे कोई कैसे समझाये?' किसी ने कहा-समझदार व्यक्ति बहुत हैं, पर तत्त्व को समझने वाले थोड़े क्यों? आपने कहा-मूर्ति बनाने योग्य पत्थर बहुत हैं; पर कारीगर कम एक व्यक्ति ने पूछा-जीव को नरक में कौन ले जाता है? आपने उत्तर दिया-पत्थर को नीचे कौन ले जाता है? वह अपने ही भार से नीचे चला जाता है। प्रश्न आगे बढ़ा-जीव को स्वर्ग में कौन ले जाता है? उत्तर मिला-काठ के टुकड़े को जल में कौन तिराता है? वह अपनी लघुता से स्वयं तैरता है। पैसे को पानी में डालो, वह डूब जाएगा। उसी को तपा-पीटकर कटोरी बना लो, वह पानी पर तैरने लगेगी। चिन्तन उनके लिए भार नहीं था, किन्तु उनके चिन्तन में गुरुत्व था। उनकी चर्या में भी चिन्तन था। एक व्यक्ति ने कहा-आप वृद्ध हैं, प्रतिक्रमण १. भिक्खु दृष्टान्त : १५७, पृ. ६५ २. वही, १५८, पृ. ६५ १३. वही, १४१-१४२-१४३, पृ. ५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003095
Book TitleBhikshu Vichar Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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