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________________ ५६ : भिक्षु विचार दर्शन (आलोचना) बैठे-बैठे किया करें। आपने कहा-मैं खड़ा-खड़ा करता हूं तो पिछले साधु बैठे-बैठे तो करेंगे, यदि मैं बैठा-बैठा करूं तो सम्भव है, पिछले साधु लेटे-लेटे करने लगें।' उनकी अनुभूति बड़ी तीव्र थी। वे परिस्थिति का अंकन बड़ी गहराई से करते थे। एक दिन स्वामीजी के साथ कोई व्यक्ति तत्त्व-चर्चा कर रहा था। बीच-बीच में वह अण्ट-सण्ट भी बोलता था। किसी ने कहा-'आप उस व्यक्ति से क्यों चर्चा करते हैं जो अन्ट-सन्ट बोलता है?. आपने कहा-'बेटा नन्हा होता है तब वह पिता की मूंछ भी खींच लेता है, पगड़ी भी बिखेर देता है, किन्तु बड़ा होने पर वही पिता की सेवा-भक्ति करता है। जब तक यह मुझे नहीं पहचान लेता है तब तक बकवास करता है। मुझे समझ लेने पर यही मेरी भाव-भरी भक्ति करेगा। वे अपनी कार्य-प्रणाली में स्वतंत्र चिन्तन उड़ेलते रहते थे। अनुकरणप्रियता उन्हें लुभा न सकी। अनुकरण-प्रेमियों की स्थिति का चित्र उनकी 'दृष्टान्त-शैली' में इस प्रकार है-“एक साहूकार में व्यापारिक समझ नहीं थी। वह पड़ोसी की देखा-देखी करता। पड़ोसी जो वस्तु खरीदता, उसे वह भी खरीद लेता। पड़ोसी ने सोचा-यह मेरी देखा-देखी करता है या इसमें अपनी समझ भी है। उसने उसे परखना चाहा और अपने बेटे से कहा-पंचांगों का भाव तेज है, उन्हें खरीद लो । थोड़े दिनों में दूने दाम हो जाएंगे। पड़ोसी ने सुना और विदेशों से पंचांग मंगवा लिये। दिवाला निकालना पड़ा।" वे मूल को बहुत महत्त्व देते थे। आचारहीनता उनके लिए असह्य थी। उससे भी अधिक असह्य थी श्रद्धाहीनता। कुछ व्यक्तियों ने कहा-भीखणजी हमें साधु या श्रावक नहीं मानते। आपने इस प्रसंग को समझाते हुए कहा-कोयलों की राब काले बर्तन में पकाई गई, अमावस की रात, जीमनेवाले अन्धे और परोसने वाले भी अन्धे। वे खाते जाते हैं और कहते हैं-खबरदार ! कोई काला 'कोंखा' आए तो टाल देना। भला क्या टाले, सारा काला ही काला है। १. भिक्खु दृष्टान्त, २१२, पृ. ८६ २. वही, २८७, पृ. ११२ ३. वही, २८८, पृ. ११३ ४. वही, १४३, पृ. ५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003095
Book TitleBhikshu Vichar Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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