SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५. हेतुवाद के पथ पर आचार्य भिक्षु तार्किक-शक्ति से सम्पन्न थे। उन्होंने साध्य-साधन का विवेक केवल आगमों के आधार पर ही नहीं किया, स्थान-स्थान पर उसे तर्क से भी पुष्ट किया है। धर्म को कसौटी परे कसते हुए उन्होंने बताया-धर्म मुक्ति का साधन है। मुक्ति का साधन मुक्ति ही हो सकती है, बन्धन कभी उसका साधन नहीं होता। बन्धन भी यदि मुक्ति का साधन हो जाए तो बन्धन और मुक्ति में कोई भेद ही न रहे। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के सिवाय कोई मुक्ति का उपाय नहीं है। इसलिए ये चार ही धर्म हैं। शेष सब बन्धन के हेतु हैं। जो बन्धन के हेतु हैं, वे मोक्ष-धर्म नहीं हैं। धर्म-मुक्ति का साधन है और स्वयं मुक्ति है। इसलिए कहा जा सकता है कि मुक्ति, मुक्ति के द्वारा ही प्राप्य है, बन्धन के द्वारा बन्धन होता है। उसके द्वारा मुक्ति प्राप्य नहीं है। बन्धन अनादि परिचित है और मुक्ति अपरिचित है। इसलिए संसारी जीव बन्धन की प्रशंसा करते हैं, किन्तु मुमुक्षु प्राणी उसकी सराहना नहीं करते। ... संसार क्या है? शरीर आत्मा का सम्बन्ध ही संसार है। सूक्ष्म शरीर (कार्मण शरीर) के द्वारा स्थल शरीर की पुनरावृत्ति होती रहती है। इन्द्रिय और मन के विषयों का ग्रहण होता है। प्रिय में राग और अप्रिय में द्वेष होता है। राग-द्वेष से कर्म-बन्ध, बन्ध से जन्म-मरण की आवृत्ति होती है। इस प्रकार ही संसार की आवृत्ति होती रहती है। ___मोक्ष क्या है? सूक्ष्म शरीर से मुक्ति। उसके बिना स्थूल शरीर नहीं होता। उसके अभाव में इन्द्रिय और मन नहीं होते। इनके बिना विषय ग्रहण नहीं होता। अभाव में राग-द्वेष नहीं होते। राग-द्वेष बिना कर्म-बन्धन नहीं होता। बन्धन के बिना संसार नहीं होता, जन्म-मरण की आवृत्ति नहीं होती। मोक्ष से संसार नहीं होता और संसार से मोक्ष नहीं होता, इसलिए १. अणुकम्पा : ४.१७ २. वही, ४.१८ : जितरा उपगार संसार नां, ते तो सगलाइ सावध हो। श्री जिन धर्म में आवे नहीं, कूड़ी म करो ताण हो। ३. जम्बूकुमार चरित : २.१५ ४. अणुकम्पा : ११.३८ : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003095
Book TitleBhikshu Vichar Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy