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५८ : भिक्षु विचार दर्शन मोक्षार्थी व्यक्ति को न जन्म की इच्छा करनी चाहिए और न मृत्यु की। उसके लिए अभिलषणीय है-संयम। संयम से जीवन-मृत्यु की आवृत्ति का निरोध होता है। इसलिए वह मोक्ष का उपाय है। वह मोक्ष का उपाय है, इसलिए मोक्ष है।
जो असंयमी जीवन की इच्छा करता है, उसे धर्म का परमार्थ नहीं मिला है। असंयममय जीवन और बाल-मरण-ये दोनों अभिलषणीय नहीं हैं। संयममय जीवन और पंडित-मरण-ये दोनों अभिलषणीय हैं।
जिन्हें सब प्रकार से हिंसा करने का त्याग नहीं है, वे असंयमी हैं। सयमी वे हैं जिनका जीवन हिंसा से पूर्णतः विरत हो। लोक-दृष्टि में वह जीवन श्रेष्ठ है जो समाज के लिए उपयोगी हो। मोक्ष-दृष्टि में वह जीवन श्रेष्ठ है जो संयमी हो। असंयमी जीवन की इच्छा समाज की उपयोगिता हो सकती है, धर्म नहीं। आचार्य भिक्षु ने कहा- “अपने असंयमी जीवन की इच्छा करना भी पाप है, तब दूसरे के असंयमी जीवन की इच्छा करना धर्म कैसे होगा? मरने-जीने की इच्छा अज्ञानी करता है। ज्ञानी वह है जो समभाव रखे।
आचार्य भिक्षु ने साध्य-साधन का विविध पहलुओं से स्पर्श करके एक सिद्धान्त स्थापित किया कि जो कार्य करना साध्य के अनुकूल नहीं है, उसे करवाना और करने वाले का अनुमोदन करना साध्य के अनुकूल नहीं हो सकता। कृत, कारित और अनुमति-तीनों अभिन्न हैं।
१. अणुकम्पा : ८.१७ : इविरती जीवां रो जीवणो वांछे, तिण धर्म रो परमारथ नहीं पायो।
आ सरधा अग्यांना री पग पग अटके, ते सांभलजो भवियण चित ल्यायो। २. वही, ६.३६ :
असंजम जीतब ने बाल मरण, यां दोयां री बंछा न करणी जी। पिंडत मरण ने संजम जीतब, यारी आसा बंछा मन धरणी जी॥ ३. वही, ६.४० :
छ काय रा सस्त्र जीव इविरती, त्यांरो असंजम जीतब जाणो जी।
सर्व सावद्य त्याग किया त्यांरो, संयम जीतब एह पिछाणो जी॥ ४. वही, २.१४ :
आपणोंई वांछे तो पाप, पर नो कुण घाले संताप। घणो जीवणो वांछे अग्यांनी, समभाव राखे ते ग्यांनी।।
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