________________
साध्य-साधना के विविध पहलू : ६३
चिन्तन की दो धाराएं हैं-लौकिक और आध्यात्मिक। लौकिक धारा का जो साध्य है वह आध्यात्मिक धारा का नहीं है और साधन भी दोनों के भिन्न हैं। पहली का साध्य है जीवन का अभ्युदय और दूसरी का साध्य है आत्मा की मुक्ति । अभ्युदय पदार्थों की वृद्धि से होता है और मुक्ति उनके त्याग से होती है। अभ्युदय का साधन है परिग्रह। परिग्रह के लिए हिंसा करनी होती है। मुक्ति का साधन है त्याग-ममत्व का त्याग, पदार्थ का त्याग और अन्त में शरीर का त्याग। त्याग और अहिंसा में उतना ही संबंध है, जितना भोग और हिंसा में है। यदि हम दोनों धाराओं के साध्यों और साधनों को अलग-अलग समझते हैं, तो हम बहुत सारी उलझनों से बच जाते हैं और उन्हें मिश्रित दृष्टि से देखते हैं तो हम उलझ जाते हैं और धर्म विकृत हो जाता है। . आचार्य भिक्षु ने कहा-धर्म के साधन दो ही हैं-संवर और निर्जरा या त्याग और तपस्या। यदि धन के द्वारा धर्म होता तो महावीर की धर्मदेशना विफल नहीं होती। भगवान् को वैशाख शुक्ला १० को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। सभा में केवल देवताओं की उपस्थिति थी, मनुष्य कोई नहीं था। भगवान् ने धर्मदेशना दी। देवताओं ने धर्म अंगीकर नहीं किया। कोई साधु या श्रावक नहीं बना, इसलिए माना जाता है कि भगवान् की पहली देशना विफल हुई। यदि धन से धर्म होता तो देवता भी धर्म कर लेते। भगवान् की वाणी को विफल नहीं होने देते। देवताओं से व्रतों का आचरण होता नहीं और धन से धर्म नहीं होता, इसलिए भगवान् की वाणी विफल हुई।
भगवान् की वाणी तब सफल हुई जब मनुष्यों ने व्रत ग्रहण किया, साधु और श्रावक बने।
१. अणुकम्पा : १२, दू. ५
देवता आगे वाणी वागरी, थित साचववा काम।
कोई साध श्रावक हुवो नहीं, तिण सूं वाणी निरफल गई आम॥ २. वही : १२, दू. ६, ७
जो धन थकी धर्म नीपजे, तो देवता पिण धर्म करत। वीर वाणी सफली करे, मन मांहें पिण हरष धरंत॥ वरत पचखाण न हुवे देवता थकी, धन सूं पिण धर्म न थाय। तिण सूं वीर वाणी निरफल गई, तिणरो न्याय सुणो चित्त ल्याय॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org