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६२ : भिक्ष विचार दर्शन
७. धन से धर्म नहीं
धन से धर्म नहीं होता, यह वाणी साधन-शुद्धि की भूमिका पर ही आलोकित हुई । भृगु ने अपने पुत्रों से कहा- जिनके लिए लोग तप करते हैं, वे धन, स्त्रियां, स्वजन और कामभोग तुम्हारे अधीन हैं, फिर किसलिए तुम तप करना चाहते हो ।'
भृगु पुत्रों ने कहा - पिता ! धर्माचरण में स्त्री, धन, स्वज़न और काम भोगों का क्या प्रयोजन है ? धर्म की आराधना में इनका कोई अर्थ नहीं है । हम श्रमण बनेंगे और अप्रतिबद्ध विहारी होकर धर्म की आराधना करेंगे।'
आचार्य भिक्षु ने इसी को आधार मानकर कहा- देव, गुरु और धर्मं- ये तीनों अनमोल हैं। इन्हें धन से खरीदा नहीं जा सकता। जो धन के द्वारा मोक्ष-धर्म की आराधना बतालाते हैं, वे लोगों को फन्दे में डालते हैं । उस समय ऐसी परम्परा हो चली थी कि जैन लोग कसाईखाने में जाते और कसाइयों को धन देकर बकरों को 'अमरिया' करवाते छुड़वाते। आचार्य भिक्षु ने इस परम्परा की इसलिए आलोचना की कि यह दया का सही तरीका नहीं है। उन्होंने कहा- कसाई को समझा-बुझाकर हिंसा से विरत किया जाए, दया का सही साधन वही है ।
एकण ने पाषंडी मिश्र कहे, तो दूजी ने हो पाप किण विध जीव बरोबर बचावीयो, फेर पडीयो हो ते तो पाप में एकण सेवायो आश्रव पांचमो, तो उण दूजी हो चौथो आश्रव फेर पड्यो तो इण पाप में धर्म होसी हो ते तो सरीषो
१. उत्तराध्ययन: १४.१६
भूयं सह इत्थियाहिं सयणा तहा कामगुणा पगामा । तवं कए तप्प जस्स लोगो तं सव्वसाहीणमिहेव तुमं ॥ २. वही, १४:१७
धणे किं धम्मधुराहिगारे, सयणेण वा कामगुणेहि चेव । समणा भविस्सामु गुणोहधारी, बहिंविहारा अभिगम्म भिक्ख ॥। ३. अणुकम्पा : ७.६३-६४
त्रिविधे त्रिविधे छकाय हणवी नहीं, एहवी छे हो भगवन्त री वाय । मोल लीयां धर्म कहे मोष रो, ए फंद मांड्यो हो कुगुरां कुबुद चलाय ॥ देव गुर धर्म रतन तीनूं, सूतर में हो जिण भाष्या अमोल । मोल लीयां नहीं नीपजे, साची सरधो हो आंख हिया री खोल ||
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होय ।
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जोय ॥ .
सेवाय ।
थाय ॥
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