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________________ १०८ : भिक्षु विचार दर्शन युद्ध करने में घाष है तो युद्ध करने के लिए शस्त्र देने और उसका अनुमोदन करने में भी धर्म नहीं है । कुछ लोगों ने कहा- जीव को मारने में पाप है, मरवाने और मारने वाले का अनुमोदन करने में पाप है, वैसे ही कोई किसी को मार रहा हो तो उसे देखने में भी पाप है। आचार्य भिक्षु ने कहा- तीन बातें ठीक हैं पर देखने वाले को पाप कहना अनुचित है ।' यदि देखने मात्र से पाप लगे तो पाप से बचा ही नहीं जा सकता। मारने, मरवाने और मारने का अनुमोदन करने से आदमी बच सकता हैं पर देखने से बचना उसके हाथ की बात नहीं है । जो सर्वज्ञ है वे सब कुछ देखते हैं । यदि देखने मात्र से पाप लगे तो वे उससे कैसे बच पायेंगे ? आचार्य भिक्षु ने जैन आगमों की इस सीमा का ही समर्थन किया कि करण, करावन और अनुमोदन - ये तीन ही धर्म और अधर्म के साधन हैं, और नहीं । ५. धर्म और पुण्य गेहूं के साथ भूसा होता है, पर भूसे के लिए गेहूं नहीं बोया जाता । धर्म के साथ पुण्य का बन्धन होता है, पर पुण्य के लिए धर्म नहीं किया जाता । जो पुण्य की इच्छा करता है, उसके पाप का बन्ध होता है । धर्म आत्मा की मुक्ति का साधन है, पुण्य शुभ परमाणुओं का बन्धन हैं। बन्धन और मुक्ति एक नहीं हो सकते । धर्म और पुण्य भी एक नहीं हो सकते । पाप लोहे की बेड़ी है और पुण्य सोने की । बेड़ी आखिर बेड़ी है, भले फिर वह लोहे की हो या सोने की । धर्म बेड़ी को तोड़ने वाला है । आत्मा में मन, वाणी और काया की चंचलता होती है, तब तक परमाणु उसके चिपकते रहते हैं । प्रवृत्ति धर्म की होती है तो पुण्य के परमाणु चिपकते हैं और प्रवृत्ति अधर्म की होती है तो पाप के परमाणु चिपकते हैं। आत्मा पर जो अणुओं का आवरण होता है, उसे हर कोई आदमी नहीं जान पाता । १. अणुकम्पा, ४ टू. २ २. नव पदार्थ, पुण्य पदार्थ १.५२ पुन तणी वंछा कीयां लागे है एकंत पाप हो लाल । तिण सूं दुःख पाये संसार में, बधतो जाये सोग-संताप हो लाल ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003095
Book TitleBhikshu Vichar Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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