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भूमिका : ३
उक्त कारणों के अतिरिक्त और भी अनेक कारण रहे हैं, जैसे१. दुर्भिक्ष २. लोक-संग्रह ३. मन्त्र-तन्त्र, शक्ति-प्रयोग आदि ।
वीर-निर्वाण १.८२ (विक्रम सं. ४१२) में चैत्यवास की स्थापना हुई।' चारित्र-शिथिलता का प्रारम्भ पहले ही हो चुका था, किन्तु उसकी एक व्यवस्थित स्थापना इस नवीं शती में हुई। उस समय श्वेताम्बर मुनिगण दो भागों में विभक्त हो गये-चैत्यवासी और सुविहित या संविग्नपाक्षिक । हरिभद्र सूरि ने चैत्यवासियों के शिथिलाचार का वर्णन 'सम्बोध प्रकरण' में करते हुए लिखा है__“ये कुसाधु चैत्यों और मठों में रहते हैं; पूजा करने का आरम्भ करते हैं, देवद्रव्य का उपभोग करते हैं; जिन-मन्दिर और शालायें चिनवाते हैं; रंग-बिरंगे, सुगन्धित, धूपवासित वस्त्र पहनते हैं; बिना नाथ के बैलों के सदृश स्त्रियों के आगे गाते हैं; आर्यिकाओं द्वारा लाये गये पदार्थ खाते हैं और तरह-तरह के उपकरण रखते हैं। ___ “जल, फल-फूल आदि सचित्त द्रव्यों का उपभोग करते हैं, दो-तीन बार भोजन करते हैं और ताम्बूल, लवंगादि भी खाते हैं।" _ “ये मुहूर्त निकालते हैं; निमित्त बतलाते हैं; भभूत भी देते हैं। ज्योनारों में मिष्ट-आहार प्राप्त करते हैं; आहार के लिए खुशामद करते हैं और पूछने पर भी सत्य-धर्म नहीं बतलाते।"
"स्वयं भ्रष्ट होते हुए भी दूसरों से आलोचना-प्रतिक्रमण कराते हैं। स्नान करते, तेल लगाते, शृंगार करते और इत्र-फुलेल का उपयोग करते हैं।" ___ “अपने हीनाचारी मृतक गुरुओं की दाह-भूमि पर स्तूप बनवाते हैं। स्त्रियों के समक्ष व्याख्यान देते हैं और स्त्रियां उनके गुणों के गीत गाती हैं।"
"सारी रात सोते हैं; क्रय-विक्रय करते हैं और प्रवचन के बहाने विकथाएं किया करते हैं।" ___ “चेला बनाने के लिए छोटे-छोटे बच्चों को खरीदते हैं; भोले लोगों को ठगते हैं और जिन-प्रतिमाओं को भी बेचते-खरीदते हैं।"
१. धर्मसागर कृत पट्टावली-वीरात् ८८२ चैत्यस्थितिः।
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