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________________ १५४ : भिक्षु विचार दर्शन आग। अब्रह्मचर्य के सेवन से जीवों की हिंसा होती है-पहला महाव्रत टूट जाता है। हिंसा नहीं होती-ऐसा कहने पर दूसरा महाव्रत टूट जाता है। अब्रह्मचर्य का सेवन भगवान की आज्ञा के विरुद्ध है, इसलिए तीसरा महाव्रत टूट जाता है। इस प्रकार अब्रह्मचर्य-सेवन से पहले तीनों महाव्रत टूट जाते हैं। शिष्य-गुरुदेव! मैं अपनी आत्मा को वश में करूंगा। आप मुझे ये चारों महाव्रत अंगीकार करा दीजिए। पर पांचवें महाव्रत को अंगीकार करने में मैं अपने को असमर्थ पाता हूं। ममत्व को त्यागना मेरे लिए बहुत कठिन है। परिग्रह के बिना मेरा काम नहीं चल सकता। गुरु-यदि परिग्रह नहीं छोड़ा तो तूने छोड़ा ही क्या? हिंसा, असत्य चोरी और अब्रह्मचर्य-इन सब रोंगों की जड़ परिग्रह ही तो है। परिग्रह की छूट रख-कर तू अन्य महाव्रतों का पालन कैसे करेगा? मनुष्य परिग्रह के लिए हिंसा करता है, असत्य बोलता है, चोरी करता है और भोग स्वयं परिग्रह है। इसलिए परिग्रह रखने वाला शेष महाव्रतों को अंगीकार नहीं कर सकता। शिष्य-गुरुदेव! केवल परिग्रह के कारण यदि मेरे चारों महाव्रत टूटते हैं तो मैं उसे भी त्याग दूंगा। मैं हिंसा आदि पांचों दोषों का मनसा, वाचा, कर्मणा सेवन नहीं करूंगा। अब तो मैं महाव्रती हूं न। गुरु-नहीं हो। शिष्य-यह कैसे? गुरु-तुम केवल हिंसा करने का त्याग करते हो, कराने का नहीं। इसका अर्थ हुआ कि तुम हिंसा करा सकते हो। तब भला महाव्रती कैसे? हिंसा करने वाला हिंसक है तो क्या कराने वाला हिंसक नहीं? घर मे तो पूरा अनाज ही खाने को नहीं मिलता और साधु बनकर बहुत सारे लोग राजसी ठाट भोगने लग जाते हैं। यह महाव्रत की आराधना का मार्ग नहीं है। शिष्य-गुरुदेव! मैं हिंसा कराने का त्याग करता हूं, फिर तो कुछ शेष नहीं होगा? गुरु-हिंसा के अनुमोदन का त्याग किए बिना महाव्रत कहां हैं? हिंसा करने, कराने वाला हिंसक है तो उसका अनुमोदन करने वाला अहिंसक कैसे होगा? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003095
Book TitleBhikshu Vichar Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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