SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संघ-व्यवस्था : १४५ बातें सुझाईं, इसलिए वे मर्यादा के कर्ता कहलाए। पर धर्म-शासन की दृष्टि से मर्यादा की सृष्टि उन सबसे हुई है जिन्होंने उसे अंगीकार किया। धर्म वैयक्तिक ही होता है, किन्तु जब उसकी सामूहिक आराधना की जाती है तब वह शासन का रूप ले लेता है। २. मर्यादा क्यों? शासन व्यवस्था पर अवलम्बित हैं। साधना का स्रोत अकेले में अधिक स्वच्छ हो सकता है, किन्तु अकेले चलने की क्षमता सबमें नहीं होती। दूसरों का सहयोग लिए-दिए बिना अकेले रहकर आगे बढ़ना महानु पुरुषार्थ का काम है। जैन-परम्परा में एक कोटि एकल-विहारी साधुओं की रही है। उस कोटि के साधु शरीरबल, मनोबल, तपोबल और ज्ञानबल से विशिष्ट सामर्थ्यवान् होते हैं। दूसरी कोटि के साधु संघ-बद्ध होकर रहते हैं। जहां संघ है वहां बन्धन तो होगा ही। अकेले के लिए भी बन्धन न हो, ऐसा तो नहीं होता। उसका आत्मानुशासन परिपक्व होता है और वह अकेला होता है, इसलिए उसे व्यावहारिक बन्धनों की अपेक्षा नहीं होती। सामुदायिक जीवन में रहने वाले साधुओं में अधिकांश मनोबल वाले होते हैं, तो कुछ दुर्बल भी होते हैं। सबका आत्मानुशासन, विवेक और वैराग्य एक सरीखा नहीं होता। आत्मिक विकास में तारतम्य होता है, उसे किसी व्यवस्था के निर्माण से सम नहीं बनाया जा सकता। जीवन-यापन और व्यवहार के कौशल में जो तारतम्य होता है, उसे मर्यादाओं द्वारा सम किया जा सकता है। एक गृहस्थ तम्बाकू सूंघता है और दूसरा नहीं सूंघता। दोनों साधु बनते हैं। तम्बाकू सूंघने वाला साधु हो ही नहीं सकता-ऐसा नहीं है। फिर भी यह एक व्यसन है। व्यसन साधु के लिए अच्छा नहीं होता। उसे मिटाने के लिए मर्यादा का निर्माण किया जाता है। हमारे संघ में कोई भी साधु तम्बाकू सूंघने वाला नहीं है। पहले कुछ थे। उनके इस व्यसन को मिटाने के लिए मर्यादा बनी कि विशेष प्रयोजन के बिना कोई साधु तम्बाकू न सूंघे और किसी विशेष प्रयोजन से सूंघे तो जितने दिन सूंघे उतने दिन दूध, दही, मिठाई आदि 'विगय' न खाए। इस मर्यादा ने तम्बाकू सूंघने वालों और न सूंघने वालों का भेद मिटा दिया। आज कोई भी साधु तम्बाकू सूंघने वाला नहीं है। १. मर्यादावलि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003095
Book TitleBhikshu Vichar Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy