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१४६ : भिक्षु विचार दर्शन ३. मर्यादा क्या? आचार्य संघ के लिए मर्यादाओं का निर्माण करते हैं। वे थोपी नहीं जाती। थोपी हुई हों तो सम्भव है, हिंसा हो जाए। बलपूर्वक कुछ भी मनवाना अहिंसा नहीं हो सकता। धर्म-शासन की मर्यादाओं को अहिंसा की भाषा में मार्गदर्शन ही कहना चाहिए। साधनाशील मुनि साधना के पथ में निर्विघ्न भाव से चलना चाहते हैं। निर्विघ्नता अपने आप नहीं आती। उसके लिए वे आचार्य का मार्ग-दर्शन चाहते हैं। आचार्य उन्हें अमुक-अमुक प्रकार से आत्मनियन्त्रण के निर्देश देते हैं। वे ही मर्यादा बन जाती हैं। ४. मर्यादा का मूल्य मर्यादा का मूल्य साधक के विवेक पर निर्भर होता है। साधक का मनोभाव साधना की ओर झुका हुआ होता है, तब वह स्क्यं नियन्त्रण चाहता है। मर्यादाएं मूल्यवान बन जाती हैं। साधक साधना से भटकता है तब मर्यादाओं का मूल्य घट जाता है। आत्मानुशासन की मर्यादा का अवमूल्यन होता देख अल्पविकसित साधकों के लिए कभी-कभी आचार्य को बाहरी नियन्त्रण भी करना पड़ता है। यह करना चाहिए या नहीं, यह अहिंसा की दृष्टि से विचारणीय है, किन्तु संघीय जीवन में ऐसा हो ही जाता है। बाहरी नियन्त्रण पर आधारित मर्यादाएं संघ के लिए आवश्यक होती होंगी, किन्तु साधना की दृष्टि से उनका कोई मूल्य नहीं है। साधना की दृष्टि से मूल्यवान् मर्यादाएं वे ही हैं, जो आत्मानुशासन से उपजी हों। ५. मर्यादा की पृष्ठिभूमि श्रद्धा के युग में प्रत्येक मर्यादा की सुरक्षा अपने आप होती है। तर्क के युग में सहज कार्यकर नहीं रहती। जिस स्थिति को जब बदलना चाहिए, वह ठीक समय पर बदल जाए, तो परिणाम अच्छा आता है और उसे आगे सरकाने का यत्न होता है, तो वह बदलती अवश्य है, किन्तु प्रतिक्रिया के साथ। सफल मर्यादा वही है, जिसे पालने वालों की श्रद्धा प्राप्त हो। जिसके प्रति निभाने वालों का अधिकांश भाग अश्रद्धाशील हो, आलोचक हो, वह बहुत समय तक नहीं टिक सकती, और टिककर भी हित नहीं कर सकती। तार्किक दृष्टिकोण से न तो मर्यादाओं का पालन किया जा सकता है और
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