SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूमिका : १५ तेरापंथ की स्थापना युग की मांग थी। आचार्य भिक्षु के नेतृत्व में तेरह साधु एकत्रित हुए। किसी कवि ने नाम रख दिया - तेरापंथ । वह आचार्य भिक्षु तक पहुंचा। उन्होंने उसे – 'हे प्रभो, यह तेरापंथ' इस रूप में स्वीकार किया और उसकी सैद्धान्तिक व्याख्या यह की - 'जहां पांच महाव्रत - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, पांच समिति - ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप, उत्सर्ग और तीन गुप्ति - मनगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति - ये तेरह ( राजस्थान में तेरा ) नियम पाले जाते हैं - वह तेरापंथ है । ' आचार्य भिक्षु ने १८१ बोल की हुण्डी में वर्तमान साधु-समाज की आचार - शिथिलता का पूरा विवरण प्रस्तुत किया है । उस समय निम्न मान्यताएं और क्रिया-कलाप प्रचलित हो गए थे १. भगवान् महावीर का भेख भी वन्दनीय है । २. इस समय शुद्ध साधुपन नहीं पाला जा सकता । ३. व्रत और अव्रत को पृथक्-पृथक् न मानना । ४. मिश्र धर्म की मान्यता - एक ही क्रिया में पुण्य और पाप दोनों का स्वीकार । ५. लौकिक दया और दान को लोकोत्तर दया और दान से पृथक् न मानना । ६. जिस कार्य के लिए भगवान् महावीर की आज्ञा नहीं है, वहां धर्म मानना । ७. दोषपूर्ण आचार की स्थापना करना । ८. स्थापित स्थानक में रहना । १. भिक्षु जश रसायण, पृष्ठ २३ : साध साध से गिलो करै, ते तो आप-आपरो मंत। सुणज्यो रे शहर-रा लोकां, ए तेरापंथी तंत॥ २. वही, ७, ६-७ : लोक कहै तेरापन्थी, भिक्खु संवली भावै हो । हे प्रभु ! ओ तेरौ पन्ध है, और दाय न आवै हो || मन भरम मिटावै हो, सो ही तेरापन्थ पावै हो । पंच महाव्रत पालतां शुद्ध सुमति सुहावै हो ॥ तीन गुप्ति तीखी तरे, भल आतम भावै हो । चित्त सूं तेरा ही चाहवै हो || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003095
Book TitleBhikshu Vichar Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy