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१६ : भिक्षु विचार दर्शन
६. उद्दिष्ट आहार लेना। १०. साधु के निमित्त खरीदी वस्तुओं का उपयोग करना। ११. नित्य-प्रति एक घर से भोजन लेना। १२. वस्त्र-पात्र पुस्तक का प्रतिलेखन न करना। १३. अभिभावकों की आज्ञा प्राप्त किए बिना गृहस्थ को दीक्षित करना। १४. मर्यादा से अधिक वस्त्र-पात्र रखना। १५. गृहस्थों से अपने लिए प्रतियां लिखवाना।
इन्हीं विचारों और आचरणों की प्रतिक्रिया हुई और उसी का परिणाम तेरापंथ है।
तेरापंथ का प्रारम्भ वि. सं. १८१७ आषाढ़ी पर्णिमा से होता है। उसी दिन आचार्य भिक्षु ने नए सिरे से व्रत ग्रहण किए। इस प्रकार उनकी दीक्षा के साथ ही तेरापंथ का सहज प्रवर्तन हुआ।
महापुरुष का अन्तःकरण परमार्थ से परिपूर्ण होता है। वह जैसे अपना हित चाहता है, वैसे दूसरों का भी। आचार्य भिक्षु को जो श्रेयोमार्ग मिला, उसे उन्होंने दूसरों को भी दिखाना चाहा, पर नए के प्रति जो भावना होती १. १८१ बोल की हुंडी : १२६ । २. भिक्षु जश रसायण : २, दोहा १-५
अल्प दिवस रे आंतर, सिख्या सूत्र सिद्धान्त। तीव्रः शुद्धि भिक्खू तणी: सुखदाई सोभन्त॥ विविध समय-रस बांचता, वारूं कियो. विचार। अरिहन्त वचन आलोचतां, ए असल नहीं अणगार॥ यां थापिता थानक आदा, आधाकर्मी अजोग। मोल लियां माहे रहे, नित्य पिण्ड लिए निरोग।' पडिलेह्यां विण रहै पड्या, पोथ्यां रा गंज पेख। विण आज्ञा दीक्षा दीये, विवेक-विकल विसेख॥ उपधि वस्त्र पात्र अधिक, मर्यादा उपरन्त।
दोष थापै जांण-जाण ने, तिण तूं ए नहीं सन्त॥ ३. वही, ८, ३-४ : .
संवत् अठारे सतरे समै, मु. पंचांग लेखे पिछाण। ओषाढ़ सुदी पूनम दिने, मु. केलवे दीक्षा-कल्याण हो॥ अरिहन्त नी लेइ आगन्या, मु. पचख्या पाप अठार हो। सिद्ध साखे करी स्वाम जी, मु. लीधो संजम भार हो।
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