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भूमिका : १७ है, वही होती है। पुराने को जो विश्वास प्राप्त होता है, वह सहसा नए को | नई स्थिति में सर्वप्रथम विरोध का सामना करना पड़ता है । आचार्य भिक्षु का तेरापंथ नया था । उन्होंने जो विचार प्रस्तुत किए, वे नए थे । इसलिए उनका विरोध होने लगा । प्रतिदिन बढ़ते विरोध ने आचार्य भिक्षु की कल्पना को यह रूप दिया- “मेरे गण में कौन साधु होगा और कौन श्रावक-श्राविका ? मुझे आत्मा का कल्याण करना है । दूसरे लोग मुझे न सुनना चाहें, तो मैं अपने कल्याण में लगूं।""
कल्पना को मूर्तरूप मिला । आचार्य भिक्षु ने एकान्तर (एक दिन उपवास और एक दिन आहार) और वन में आतापना लेना प्रारम्भ कर दिया।' लम्बे समय तक यह क्रम चला। एक दिन थिरपाल और फतेहचन्द दोनों साधु आए। उन्होंने प्रार्थना की- "गुरुदेव ! तपस्या का वरदान हमें दें और आप जनता को प्रतिबोध दें । " ३ यह तेरापंथ के विकास का पहला स्वर था । आचार्य भिक्षु ने उनकी प्रार्थना को सुना और फिर एक बार जनता को प्रतिबोध देना शुरू किया । यह प्रयत्न सफल हुआ। लोगों ने आचार्य भिक्षु को सुना ।
अब क्रमशः तेरापंथ का वट-वृक्ष विस्तार पाने लगा ।
आचार्य भिक्षु ने परिवर्तित स्थिति को देख ग्रन्थ-निर्माण का कार्य
१. भिक्षु जश रसायण : १०, दोहा ६-७
जब भिक्खु मन जाणियो, कर तप करूं किल्याण । मग नहीं दीखे चालतो, अति घन लोग अजाण ॥ घर छोड़ी मुझ गण मझे, संजम कुण ले सोय ? श्रावक नैं बलि श्राविका, हुंता न दीसै कोय | २. वही, १०, दोहा ८-६
एहवी करै आलोचना, एकन्तर अवधार । आतापन बलि आदरी, सन्ता साथे सार ॥ चौविहार उपवास चित्त, उपधि ग्रही सहु संत । आतापन लेवन मझे, तप कर तन तावंत ॥ ३. वही, १०, ६-७ः
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थे बुद्धिमान थारी थिर बुद्धि भली, उत्पत्तिया अधिकाय हो । समझावों बहु जीव सेणां भणी, निर्मल बतावी न्याय हो । तपस्या करां म्हे आतम तारणी, अधिक पौंच नहीं ओर हो। आप तरो नै 'तारो अवर नें, जाझो बुद्धि नो जोर हो ||
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