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________________ १६६ : भिक्षु विचार दर्शन उन्हें सन्देह में डालने का यत्न न किया जाए। बड़े जो उत्तर दें, वह अपने हृदय में बैठे तो मान लिया जाए और यदि न बैठे तो उसे केवलीगम्य कर दिया जाए। पर उसकी खींचतान बढ़ाकर गण में भेद न डाला जाए।" आचार्य भिक्षु का यह विधान संघ की एकता को अक्षुण्ण रखने का अमोघ उपाय है। वास्तविक सत्य क्या है? इसका समाधान हमारी बुद्धि के पास नहीं है। हम व्यावहारिक सत्य के आधार पर ही सारा कार्य चलाते हैं। हमने जो निर्णय किया, वही अन्तिम संत्य है-इतना आग्रह रखने जैसा सुदृढ़ साधन हमें उपलब्ध नहीं है। व्यावहारिक सत्य की स्वरूप-मीमांसा कविवर 'प्रसाद' ने बड़े प्रांजल ढंग से की है "और 'सत्य यह एक शब्द तू कितना गहन हुआ है। मेधा के क्रीड़ा पंजर का पाला हुआ सुआ है। सब बातों में खोज तुम्हारी रट-सी लगी हुई है। किन्तु स्पर्श यदि करते हम बनता छुईमुई है।" हम जिसे सत्य मानते हैं, सम्भव है वह सत्य न भी हो। हम जिसे सत्य नहीं मानते, संभव है वह सत्य हो। सीमित शब्दों में अनन्त सत्य को बांधना भी कठिन है और उसे सीमित बुद्धि द्वारा पकड़ना तो और भी अधिक कठिन है। इसीलिए आचार्य भिक्षु ने कहा-"हम जो कर रहे हैं वह उत्तरवर्ती आचार्यों को सही लगे तो करें और सही न लगे तो उसे छोड़ दें।" इस उक्ति के आधार पर अनेक परिवर्तन भी हुए। कुछ लोगों ने प्रश्न उपस्थित किया कि प्रचलित परम्परा में परिवर्तन जो किया है, उसका अर्थ यह हुआ कि या तो वे सही नहीं थे, या आप सही नहीं हैं, या तो उनकी मान्यता सही नहीं थी या आपकी सही नहीं है। इसका समाधान इन शब्दों १. लिखित, १८५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003095
Book TitleBhikshu Vichar Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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