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संघ व्यवस्था : १६५
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नहीं है और मतैक्य उनमें भी नहीं हैं जो ३२ को प्रमाण मानते है । इसका कारण भी कोई बहुत गहराई में नहीं है । आगम स्वयं अर्थ नहीं देते। वे अपनी अपेक्षाओं को खोलकर हमारे सामने नहीं रख देते । उनका अर्थ करने वाले हम ही होते हैं। उनकी अपेक्षाओं का निर्णय भी हम ही करते हैं । अन्तिम निर्णय हमारी ही बुद्धि करती है । हम अपनी बुद्धि द्वारा जिस सूत्र - पाठ की जैसे संगति बिठा सकते हैं, उसे उसी रूप में मान्य करते हैं ।
शब्द - ज्ञान को प्रमाण मानने में लाभ यह है कि उससे हमारे उच्छृंखल तर्क पर एक अंकुश लग जाता है। बहुश्रुतों द्वारा संचित ज्ञान-राशि से हमें अपूर्व आलोक मिलता है। हेय उपादेय का अपूर्व चिन्तन मिलता है और वह सब कुछ मिलता है जो साधना के लिए एक साधक को चाहिए। किन्तु पाने वाला केवल प्रकाश ही नहीं पाता, कुछ-न-कुछ अन्धकार भी पाता है । ज्ञान-र न राशि में अन्धकार नहीं होता । हम कोरे ज्ञान को नहीं लेते, आगम के आशय को नहीं लेते, साथ-साथ शब्दों को भी पकड़ते हैं और शब्दों की पकड़ जितनी मजबूत होती है, उतनी आशय की होती ही नहीं । चतुर्मास में मुनि को एक जगह रहना चाहिए, यह आगमिक विधान है । वर्षाकाल में हरियाली और जीव-जन्तु अधिक उत्पन्न होते हैं, मार्ग जल से भर जाते हैं, पानी गिरता है - इन कारणों से चतुर्मास में विहार करने का निषेध है । दक्षिण भारत में कुछ प्रदेश ऐसे हैं जहां कार्तिक के पश्चात् बरसात शुरू होती है । आशय को पकड़ा जाए तो वहां चतुर्मास शरद् और हेमन्त में होना चाहिए । किन्तु शब्दों की पकड़ ऐसा नहीं होने देती । शब्दों को पकड़कर विचार-भेद खड़ा कर देने की समस्या नई नहीं है । इसका सामना भी सभी को करना पड़ता है। इसके द्वारा अनेकता भी उत्पन्न हुई है। आचार्य भिक्षु ने तेरापंथ की व्यवस्था को इस अनेकता के दोष से बचाना चाहा। उन्होंने लिखा है- 'किसी साधु को आचार, श्रद्धा, सूत्र या कल्प सम्बन्धी किसी विषय की समझ न पड़े तो वह, आचार्य तथा बहुश्रुत साधु कहे, उसे मान ले । उनके समझाने पर भी बुद्धि में न बैठे तो उसे केवलीगम्य कर दे। किन्तु दूसरे साधुओं को सन्देह में डालने का यत्न न करे।""
“श्रद्धा या आचार का कोई नया विषय ध्यान में आए तो उसे बड़ों के सामने चर्चा जाए, औरों से न चर्चा जाए। औरों से उसकी चर्चा कर
१. लिखित, १८४५
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