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संघ-व्यवस्था : १६७
में किया जाता रहा है- “पूर्वी आचार्यों ने जो किया, उसे उन्होंने व्यवहार सत्य दृष्टि से सही मानकर किया, इसलिए वे भी सही हैं और अभी जो हम कर रहे हैं, उसे भी व्यवहार सत्य की दृष्टि से सही समझकर कर रहे है, इसलिए हम भी सही हैं। उनकी सत्य-निष्ठा में हमें विश्वास है, इसलिए हमारी दृष्टि से भी वे सही हैं और हमारी सत्य-निष्ठा में उनको विश्वास था, तभी तो उन्होंने हमें यह अधिकार दिया, इसलिए उनकी दृष्टि में हम सही हैं।" .. सत्य पूवर्ती आचार्यों या साधुओं की पकड़ में ही आ सकता है, यह कोई महत्त्व की बात नहीं है और वह आधुनिक आचार्यों या साधुओं की पकड़ में नहीं आ सकता, इसका भी कोई महत्त्व नहीं है। जो सत्य पहले नहीं पकड़ा गया, वह आज पकड़ा जा सकता है और जो आज नहीं पकड़ा गया, वह पहले पकड़ा गया है। यह विरोध नहीं है। यह सापेक्षता है। ज्ञान, बौद्धिक निर्मलता, चारित्रिक विशुद्धि, दृष्टि-सम्पन्नता और साधन-सामग्री अधिक उपलब्ध होते हैं तो सत्य के निकट पहंचने में सलभता होती है और इनकी उपलब्धि कम हो तो उसके निकट पहंचना दुर्लभ होता है। इनकी उपलब्धि किसी समय में सब की होती है, यह भी सच नहीं है और किसी समय में किसी को भी नहीं होती, यह भी सत्य से परे है। वह बहत ही महत्त्वपूर्ण है और सैद्धान्तिक मतभेदों को तान-तान कर आग्रह के गड्ढों में गिरने से बचाता है।
इससे न तो विचार-स्वातन्त्र्य का हनन होता है और न आग्रह को वैसा बढ़ावा ही मिलता है, जिससे गण में कोई दरार पड़ सके।
इतका सारांश यह है कि मनुष्य अपने विचार को व्यवहार में सत्य मानकर चले, किन्तु उसका इतना आग्रह न रखे, जिससे संगठन की एकता का भंग हो जाए।
जो सत्य लगता है उसे छोड़ा भी कैसे जाए और जो सत्य नहीं लगता है, उसे स्वीकार भी कैसे किया जाए-यह समस्या है और यह जटिलतम समस्या है। पर यह भी उतनी ही बड़ी समस्या है कि जिससे मैं सत्य मानता हूं, वह सत्य ही है, इसका निर्णय मैं कैसे करता हूं? आखिर सीमित बुद्धि,
१. श्रद्धा री चौपई, १६.५१
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