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१६८ : भिक्षु विचार दर्शन
सीमित साधनों और देश-काल की सीमित मर्यादाओं के द्वारा ही तो मैं उसे सत्य मान रहा हूं। इसलिए इतना आग्रह कैसे रख सकता हूं कि जो मैंने पाया वही अन्तिम सत्य है। जो व्यक्ति अकेला हो या अकेला रहना चाहता हो, वह फिर भी ऐसा आग्रह रख सकता है, किन्तु जो किसी समुदाय में रहना चाहे और रहे, वह ऐसा आग्रह कैसे रखे? उसके लिए ऋजुपन्था यह है कि बहुश्रुत साधुओं व आचार्य के सामने अपना विचार रख दे, फिर वे जी मार्ग सुझाएं, उसका अनुगमन करे। ___ यह विचार-स्वतन्त्रता का हनन नहीं है। यह सामंजस्य का मार्ग है। यह किसी स्वार्थ या मानसिक दुर्बलता से किया जाए तो वह दोष हैं। यह निर्दोष तभी है, जबकि अपनी अपूर्णता और सत्य-शोध की विनम्र भावना से प्रेरित हो किया जाए। ___ आचार्य भिक्षु ने अन्तिम निर्णायक आचार्य को माना है। फिर भी उन्होंने बहुश्रुत साधुओं को उचित स्थान दिया है। उन्होंने लिखा है-“किसी विषय को प्रामाणिक या अप्रामाणिक ठहराने का अवसर आए तो उसके लिए बहुश्नुत साधुओं को भी पूछा जाए।''
किसी साधारण बुद्धि वाले साधु के जैसे कोई विचार-भेद हो सकता है, वैसे बहुश्रुत साधुओं में भी विचार-भेद हो सकता है। सामान्य साधु के लिए यह निर्देश पर्याप्त हो सकता है कि वह बहश्रुत के मार्ग का अनुगमन करे, किन्तु जब दो या अनेक बहुश्रुतों में परस्पर विचार-भेद हो जाए तब क्या किया जाए?
. इसके समाधान का पहला सोपान तो यह है कि बहुश्रुत साधु परस्पर बातचीत कर, उस चर्चनीय विषय का समाधान ढूंढें । जैसा कि आचार्य भिक्षु ने लिखा है-“कोई चर्चा या श्रद्धा का प्रश्न उपस्थित हो तो बहुश्रुत या बुद्धिमान् साधु सोच-विचारकर उसका समाधान ढूंढ सामंजस्य बिठाए। किसी विषय का सामंजस्य न बैठे तो खींचतान न करें, उसे केवलीगम्य कर दें, किन्तु अंश मात्र भी खींचतान न करें।"२ ।
इससे भी काम पूरा न हो तो फिर आचार्य जो निर्णय दे, उसे मान्य
१. लिखित, १८३२ २. वही, १८५६
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