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________________ मोक्ष-धर्म का विशुद्ध रूप : ६७ शायद नहीं थी। ऐसा क्यों होता है? यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है और इसीलिए महत्त्वपूर्ण है कि धर्म-प्रधान देश में ऐसा क्यों होता है? यहां इसकी लम्बी चर्चा में नहीं जाना है। संक्षेप में इतना ही बस होगा कि जब स्वार्थ धर्म पर हावी हो जाता है तब ऐसा होता है, जब धर्म रूढ़ि बन जाता है तब ऐसा होता है और जब धर्म पूजा जाता है तब ऐसा होता है। आचार्य भिक्षु के सामने धर्म और अधर्म की मिलावट का प्रश्न था। यह प्रश्न कोई नया नहीं था। याज्ञिक लोग यज्ञ में धर्म और पाप दोनों मानते थे। उनका अभिमत यह रहा कि दक्षिणा देने में पुण्य होता है और पशु-वध में पाप। यज्ञ में पाप थोड़ा होता है और पुण्य अधिक। कई जैन भी मानने लगे कि दया भावना से जीवों को मारने में पाप और धर्म दोनों होते हैं। बड़े जीव पर दया होती है यह धर्म और छोटे जीव की घात होती है यह पाप है। धर्म अधिक होता है और पाप थोड़ा, यह मिश्र दया है। असंयति को दान देने में धर्म-अधर्म दोनों होते हैं। यह मिश्रदान का सिद्धान्त है। खाद्य-पेय में मिलावट का विरोध अणुव्रत के माध्यम से आचार्यश्री तुलसी कर रहे हैं। धर्म और अधर्म की मिलावट का विरोध तेरापंथ के माध्यम से आचार्य भिक्षु ने किया। उन्होंने कहा-प्रवृत्ति के स्रोत दो हैं-रागद्वेषात्मक और वैराग्य भाव। पहले स्रोत से प्रवाहित प्रवृत्ति असम्यक् या अधर्म और दूसरे स्रोत से प्रवाहित प्रवृत्ति सम्यक् या धर्म कहलाती है। अधर्म और धर्म की करनी अलग-अलग है। अधर्म करने से धर्म नहीं होता और धर्म करने से अधर्म नहीं होता। एक करनी में दोनों १. सांख्य तत्त्व कौमुदी, पृ. २८, ३१ २. निन्हव री चौपाई ३ : दू. २ : ३. निन्हव रास : गा. १४५ : एक करणी करे तेहमें, नीपनो कहे धर्म न पाप के। एहवी करे छे परूपणा, मिश्र दान री कीधी छे थाप के। ४. व्रताव्रतः ढा. "१२ दू, २ : - दोय करणी संसार में, सावद्य निरवद' जाण। निरवद करणी में जिण आगन्यां, तिण पामे पद निरवाण। ५. वही, ११.३६ : पाप अठारे सेव्यां एकंत पाप, ते सेव्यां नहीं धर्म होयो रे। पाप धर्म री करणी छे न्यारी, पिण मिश्र करणी नहीं कोयो रे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003095
Book TitleBhikshu Vichar Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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