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६६ : भिक्षु विचार दर्शन
७. लौकिक और आध्यात्मिक धर्म एक नहीं हैं।
८. आवश्यक हिंसा अहिंसा नहीं है। २. मिश्र धर्म कई दार्शनिकों की मान्यता है कि वनस्पति आदि एक इन्द्रियवाले जीवों के घात में जो पाप है, उससे कई गुणा अधिक पुण्य मनुष्य आदि बड़े प्राणियों के पोषण में है। एकेन्द्रिय की अपेक्षा पंचेन्द्रिय जीव बहुत भाग्यशाली हैं। अतः बड़े जीवों के सुख के लिए छोटों का घात करने में दोष नहीं है।'
किन्तु हिंसा ली करणी में दया नहीं हो सकती और दया की करणी में हिंसा नहीं हो सकती। जिस प्रकार धूप और छांह भिन्न हैं, उसी प्रकार दया और हिंसा भिन्न हैं।
विश्व की व्यवस्था बहुत विचित्र है। इसमें मिलने और बिछुड़ने की व्यवस्था भी है। सब तत्त्व नहीं मिलते-बिछुड़ते हैं। केवल पुद्गल ही एक ऐसा द्रव्य है जो मिलता है, बिछुड़ता है।
दूसरे महायुद्ध के बाद मिलों की यात्रा बढ़ी है। यातायात की सुविधाएं बढ़ी हैं। पर्यटन बढ़ा है। एक देश के लोग दूसरे देश के लोगों के अधिक मिलते-जुलते हैं। यह मिलन ही नहीं बढ़ा है, किन्तु वैसे मिलन भी बढ़ा है, जो नैतिकता और स्वास्थ्य दोनों के लिए हानिकारक है। खाद्य में मिलावट होती है। दूध में, घी में, औषधि में, और भी न जाने किन-किन पदार्थों में क्या-क्या मिलाया जाता है।
आचार्य भिक्षु के जमाने में मिलावट का यह प्रकार नहीं था। खाद्य शुद्ध मिलता था। घी भी शुद्ध मिलता था। औषधि लेने वाले लोग कम थे। दूध में पानी मिलाने की प्रथा कुछ पुरानी है, पर आज जैसी व्यापक १. अणुकम्पा : ६.१६.२०
केइ कहे म्हे हणां एकेन्द्री, पंचेन्द्री जीवां रे ताई जी। एकेन्द्री मार पंचेन्द्री पोष्यां धर्म घणो तिण मांहिं जी॥ एकेन्द्री थी पंचेन्द्री नां, मोटा घणा पुन भारी जी।
एकेन्द्री मार पंचेन्द्री पोष्यां, म्हांने पाप न लागे लिगारी जी। २. वही : ६.७० : हिंसा री करणी में दया नहीं छे, दया री करणी में हिंसा नाहीं जी। दया में हिंसा री करणी छे न्यारी, ज्यू ताण्ड़ो में छांही जी॥
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