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४. मोक्ष-धर्म का विशुद्ध रूप
१. चिन्तन के निष्कर्ष जितना प्रयत्न पढ़ने का होता है, उतना उसके आशय को समझने का नहीं होता। जितना प्रयत्न लिखने का होता है उतना तथ्यों के यथार्थ संकलन का नहीं होता। अपने प्रति अन्याय न हो, इसका जितना प्रयत्न होता है, उतना दूसरों के प्रति न्याय करने का नहीं होता। गहरी डुबकी लगाने वाला गोताखोर जो पा सकता है, वह समुद्र की झांकी लगाने वाला नहीं पा सकता।
आचार्य भिक्षु के विचारों की गहराई विहंगावलोकन से नहीं मापी जा सकती उन्होंने जो व्याख्याएं दीं, वे व्यवहारिक जगत् को कैसी ही क्यों न लगीं, पर उनमें वास्तविक सच्चाई है। दृष्टान्त और निगमन तत्त्व को सरल ढंग से समझााने के लिए होते हैं। इनका प्रयोग मन्द बुद्धिवालों के लिए होता है। इनके द्वारा उलझनें भी बढ़ती हैं। सिद्धान्त की रोचकता और भयानकता जैसी इनके द्वारा होती है, वैसी उसके स्वरूप में नहीं होती।
पक्ष और विपक्ष दोनों कोटि के दृष्टान्तों को छोड़कर सिद्धान्त, की आत्मा का स्पर्श किया जाए, तो आचार्य भिक्षु की सिद्धांत-वाणी के मौलिक निष्कर्ष ये हैं :
१. धर्म और अधर्म का मिश्रण नहीं होता। २. अशुद्ध साधन के द्वारा साध्य की प्राप्ति नहीं होती। ३. बड़ों के लिए छोटे जीवों का घात करना पुण्य नहीं है। ४. गृहस्थ और साधु का मोक्ष-धर्म एक है। ५. अहिंसा और दया सर्वथा एक हैं। ६. हिंसा से धर्म नहीं होता।
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