________________
१७० : भिक्षु विचार दर्शन
तू जो कहता सत्य नहीं हैं, मैं कहता हूं सत्य वही है। 'त'- 'मैं' के इस झगड़े का जो शांति-पाठ आचार्य वही है।
संगठन की दृष्टि से यह परिभाषा मुझे बहुत अच्छी लगी। परिभाषा की सूझ मेरी नहीं है। मेरी अपनी वस्तु केवल कविता की पंक्तियां हैं। यह मौलिक तत्त्व आचार्य भिक्षु और उनके महान् भाष्यकार जयाचार्य से मिला। - जहां संगठन होता है, वहां अनेक व्यक्ति होते हैं और जहां अनेक व्यक्ति हैं वहां अनेक विचार होते हैं। अनेक विचार संगठन को एक कैसे बनाए रख सकते हैं?
संगठन आचार और विचार एकरूपता के आधार पर ही टिक सकता है। जितने व्यक्ति उतने ही प्रकार के विचार-यह स्थिति संगठन के अनुकूल नहीं होती है। व्यक्तिगत विचारों की स्वतन्त्रता होती है और वह होनी ही
साहिए, किन्तु उनकी भी एक सीमा है। जैसे एक व्यक्ति अपने विचारों के दिए स्वतन्त्र है वैसे दूसरा भी है। वैयक्तिक स्थिति में ऐसा हो सकता है ५. मिलकर चलने की स्थिति में ऐसा नहीं हो सकता। _संगठन व्यावहारिक होता है। व्यवहार की स्थिति का अनुमापन व्यवहार से ही होता है। वहां विचारों पर अंकुश नहीं लगता, किन्तु एकरूपता में खलल डालने वाले विचार पर नियन्त्रण अवश्य होता है। इसे भले ही संगठन की दुर्बलता मान जाए। पर यह किसी एक व्यक्ति की दुर्बलता नहीं है। जिन्होंने संगठन करना चाहा है, उन्होंने यह भी चाहा है कि हम एक-रूप रहें। इस एकरूपता की चाह में से ही तत्त्व प्रकट होता है कि उसमें बाधा डालने वाले विचारों पर नियन्त्रण रहे। साथ-साथ यह भी स्पष्ट कर देना उचित होगा कि कोरी एकरूपता भी अभीष्ट नहीं है। मूल सूखने लगे तब सौन्दर्य का मूल्य ही क्या है और वह टिकता भी कब है? सत्य, आचार और संयम की निष्ठा बनी रहे, उसी स्थिति से संगठन का महत्त्व है और उसी स्थिति में इसका महत्त्व है कि साधारण-सी बातों को लेकर अनेकता का बीज न बोया जाए। कोई नया विचार आए तो उसका प्रयोग संघ या संघपति-जहां निर्णायकता केन्द्रित हो, उन्हीं की स्वीकृति से किया जाए। ___ एकतन्त्रीय अनुशासन में निर्णायक एक होता है और बहुतन्त्र में कुछेक। सब-के-सब निर्णायक कहीं भी नहीं होते। एकतन्त्र में एक के सामने निन्यानवे की उपेक्षा हो सकती है और बहुतन्त्र में ५१ के सामने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org