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________________ ३६ : भिक्षु विचार दर्शन बहन-गर्म जल से। आचार्य भिक्षु-कहां धोएगी? बहन-इस नाली में। आचार्य-वह जल कहां जाएगा? बहन-नीचे। आचार्य-इससे तो अनेक जीव मर सकते हैं या मर जाएंगे। इसलिए मैं तेरे हाथ से भिक्षा नहीं ले सकता। बहन-आप भिक्षा ले लें। मैं हाथ कैसे और कहां धोऊंगी, इसकी चिन्ता क्यों करते हैं? मैं भिक्षा देकर हाथ धोती हूं, उसे भला कैसे छोडूंगी? आचार्य-तो रोटी के लिए मैं अपना आचार क्यों तोडूंगा? एक आत्मस्थ व्यक्ति को आनन्दानुभूति आचारनिष्ठ रहने में होती है, वह रोटी जुटाने में नहीं होती। आचार के लिए रोटी को ठुकराने में जो पुरुषार्थ है, वह रोटी के लिए आचार को ठुकराने में समाप्त हो जाता है। १२. व्यक्तिगत आलोचना से दूर आलोचना दोष की होनी चाहिए और प्रशंसा गुण की। किसी व्यक्ति की आलोचना करनेवाला अपने लिए खतरा उत्पन्न करता है, आलोच्य के लिए वह न भी हो। प्रशंसा करनेवाला प्रशस्य व्यक्ति के लिए खतरा उत्पन्न करता है। आचार्य भिक्षु ने बहुत आलोचना की, उनकी हर आलोचना में क्रान्ति का घोष है। पर व्यक्तिगत आलोचना से जितने वे बचे, उतना विरला ही बच सकता है। एक आदमी ने पूछा-'महाराज! इतने सम्प्रदाय हैं जिनमें कौन साधु है और कौन असाधु? आचार्यवर ने कहा-'एक अन्धा मनुष्य था। उसने वैद्य से पूछा-नगर में नग्न कितने हैं और कपड़े पहनने वाले कितने? वैद्य बोला-यह दवा लो, आंख में डाल लो। मैं तुम्हें दृष्टि देता हूं, फिर तुम ही देख लेना-नग्न कितने हैं और कपड़े पहनने वाले कितने।' आपने कहा-'साधु और असाधु की पहचान मैं बता देता हूं, फिर तुम्हीं परख लेना-कौन साधु है और कौन असाधु । नाम लेकर किसी को १. वही, ३२, पृ. १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003095
Book TitleBhikshu Vichar Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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