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व्यक्तित्व की झांकी : ३७
असाधु कहने से झगड़ा खड़ा हो जाता है। दृष्टि में देता हूं और मूल्याकन तुम्ही कर लेना।
एक समय किसी दूसरे व्यक्ति ने ऊपर का कथन दोहराया। . आपने कहा- 'एक आदमी ने पूछा-इस शहर में साहूकार कौन है
और दिवालिया कौन है? उत्तरदाता ने कहा-मैं किसे साहूकार बताऊं और किसे दिवालिया? मैं तुम्हें गुण बता देता हूं-जो लेकर वापस देता हो वह साहूकार, जो लेकर वापस न करता हो और मांगने पर झगड़ा करे, वह दिवालिया। परीक्षा तुम्ही कर लेना-कौन साहूकार है और कौन दिवालिया।'
आपने कहा- 'मैं तुम्हें लक्षण बता देता हूं-जो महाव्रतों को ग्रहण कर उनका पालन करे, वह साधु और जो उन्हें न निभाये, वह असाधु । परीक्षा तुम्हीं कर लेना, कौन साधु है और कौन असाधु ।' १३. सिद्धान्त और आचरण की एकता जहां विधान दूसरों के लिए होता है, अपने लिए नहीं, वहां वह जीकर भी निर्जीव बन जाता है। जो महान् होता है वह सबसे पहले विधान को अपने ऊपर ही लागू करता है।
एक दूसरे सम्प्रदाय का साधु आया और आचार्य भिक्षु को एकांत में ले गया। आपने थोड़े समय तक बातचीत की और लौट आये।
हेमराजजी स्वामी आपके दाएं हाथ थे। उन्होंने पूछा-'गुरुदेव! वह किसलिए आया था और उसने क्या बातचीत की?
आपने कहा-'वह किसी दोष का प्रायश्चित्त लेने आया था।' हेमराजजी-किस दोप का? आचार्य-मुझे कहना नहीं कल्पता।
व्यवस्था के पालन के लिए अपने प्रिय शिष्य की भी उपेक्षा कर देनी चाहिए, यह बहुत बड़ा सिद्धांत नहीं है, पर बहुत बड़ा कार्य है। जहां सिद्धांत की गुरुता कार्य की गहराई में लीन हो जाती है, वहां कार्य और सिद्धांत एक-दूसरे में चमक ला देते हैं।
१. भिक्खु दृष्टान्त, ६६, पृ. ३४ २. वही, १००, पृ. ४३ ३. वही, ५७, पृ. १०
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