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३८ : भिक्षु विचार दर्शन
१४. अकिंचन की महिमा
सामग्री चौंधिया देती है, पर प्रथम दर्शन में । आदि से अन्त तक व्यक्ति का तेज ही चमकता है। उपकरण किसी के अन्तर को नहीं छू सकता । आचार्य भिक्षु पुर से भीलवाड़ा जा रहे थे। उन्होंने बीच में एक जगह विश्राम लिया । ढूंढाड़ का एक आदमी मिला। उसने पूछा- 'आपका नाम क्या है? आपने कहा- 'मेरा नाम भीखण है ।'
वह बोला- 'भीखणजी की महिमा तो बहुत सुनी है। फिर आप तो अकेले पेड़ के नीचे बैठे हैं। मेरी कल्पना तो थी कि आपके पास बहुत आडम्बर होगा - हाथी, घोड़े, रथ और पालकियां होंगी; पर कुछ नहीं देखता हूं।'
आचार्य - महिमा इसीलिए तो है कि पास में ऐसा आडम्बर नहीं । साधु का मार्ग ऐसा ही है ।
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आचार्य भिक्षु उसके अन्तरतम के देवता हो गए।
अन्तरतम उसी के लिए सुरक्षित रह सकता है जो बाहरी सुरक्षा की चिन्ता से मुक्त होता है। सच तो यह है कि सुरक्षा बाहर में है भी नहीं । आचार्य भिक्षु अन्तर की सुरक्षा से इतने आश्वस्त थे कि बाहरी सुरक्षा का प्रयत्न उनके लिए मूल्यहीन बन गया था ।
१५. जहां बुराई भलाई बनती है
विश्व में अनेक घटनाएं घटती हैं- कोई अनुकूल और कोई प्रतिकूल । अनुकूल घटना में मनुष्य फूलकर कुप्पा हो जाता है और प्रतिकूल घटना में सिकुड़ जाता है । यह तटस्थ वृत्ति के अभाव में होता है । तटस्थ व्यक्ति समभावी होता है । उसका मन इतना बलवान् हो जाता है कि वह अप्रिय को प्रिय मानता है और असम्यक् को सम्यक् रूप में ग्रहण करता है ।
आचार्य भिक्षु पाली में चातुर्मास करने आये । एक दुकान में ठहरे। एक सम्प्रदाय के आचार्य दुकान के मालिक के पास गए। उसकी पत्नी से कहा - 'बहिन ! तूने दुकान दी है पर चौमासा शुरू होने के बाद चार मास तक भीखणजी इसे छोड़ेंगे नहीं ।' वह आचार्य भिक्षु के पास आयी । उसने कहा - 'मेरी दुकान से चले जाएं।' आपने कहा- 'हम जबर्दस्ती रहने वाले
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१. वही, १२५, पृ. ५३
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