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________________ प्रतिध्वनि : ६७ आचार्य भिक्षु की व्याख्या में जो सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप है वही जैन धर्म है और जो जैन धर्म है वही सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप है। कुछ लोग मिथ्या दृष्टि या जैनेतर व्यक्ति की क्रियामात्र को अशुद्ध मानते थे। आचार्य भिक्षु ने उनके अभिमत की आलोचना की। आपने कहा-जो लोग मिथ्या दृष्टि की निरवद्य क्रिया को भी अशुद्ध मानते हैं, उनकी बुद्धि सही मार्ग पर नहीं है। मिथ्या दृष्टि की निरवद्य क्रिया में कोई गुण नहीं-यों कहने वालों की बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। आचार्य भिक्षु ने कहा-भगवान् का धर्म समुद्र की तरह विशाल और आकाश की तरह व्यापक है। जो धर्म शुद्ध, नित्य और शाश्वत है, भगवान् ने जिसकी व्याख्या की है, वह एक शब्द में है अहिंसा। भगवान् ने कहा-प्रांण, भूत, जीव और सत्त्वों को मत मारो, उन पर अनुशासन मत करो, उन्हें दास-दासी बनाकर अपने अधीन मत करो। उन्हें परिताप मत दो, उन्हें कष्ट मत दो, उन्हें उपद्रव मत करो, यही धर्म ध्रुव, नित्य और शाश्वत है। यह धर्म सबके लिए है-जो धर्म के आचरण के लिए उठे हैं या नहीं उठे हैं, जो धर्म सुनना चाहते हैं या नहीं चाहते हैं, जो प्राणियों को दण्ड देने से निवृत्त हुए हैं या नहीं हुए हैं, जो उपाधि-युक्त हैं या उपाधि-रहित हैं, जो संयोग से बंधे हुए हैं या नहीं हैं। १. मिथ्यात्वी करणी निर्णय, १.२६-३० : निरबद करणी करे पहिले गुण ठाणे, तिण करणी में जाबक जाणे असुध। इसडी परुपणा करे अग्यांनी, तिणरी भिष्ट हुई छे सुधने बुध।। पहिले गुण ठाणे निरबद करणी करे छे, तिणरी करणी सरायां में दोष ण जाणे। अतिचार लागो कहे समकत माही, तिणरो न्याय जाण्यां तिन मूरख ताणे।। २. आयारो, ४/१, २ : से बेमि-जे अईया, जे य पडुप्पन्ना, जे य आगमेस्सा, अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णवेंति, एवं परूवेंति सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सब्वे जीवा, सव्वे सत्ता, ण हंतव्वा, ण अज्जावेयव्वा, ण परिघेतव्वा, ण परियावेयव्वा, ण उद्दवेयव्वा । एस धम्मे सुद्धे, णिइए, सासए"। ३. आयारो, ४/३: उठिएसु वा, अणुट्ठिएसु वा। उवठिएसु वा, अणुवट्ठिएसु वा। उवरयदंडेसु वा, अणुवरयदंडेसु वा। सोवहिएसु वा, अणोवहिएसु वा। संजोगरएसु वा, असंजोगरएसु वा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003095
Book TitleBhikshu Vichar Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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