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६६ : भिक्षु विचार दर्शन से स्वतः खण्डन हो गया। धर्म और सम्प्रदाय एक नहीं हैं, इस सचाई की उन्हें गहरी अनुभूति थी। उन्होंने कहा-निरवद्य प्रवृत्ति धर्म है, भले फिर वह जैन की हो या जैनेतर की। सावध प्रवृत्ति अधर्म है, भले फिर वह जैन की हो या जैनेतर की। ____ जो व्यक्ति जैन-दर्शन की व्याख्या को अक्षरशः न माने, उसमें वैराग्य
और सदाचार की भावना नहीं जागती, यह मानना दुराग्रह की चरम सीमा है। जैन-दर्शन सचमुच ही धर्म की अखण्डता को स्वीकार करता है। सम्प्रदाय धर्म को विभक्त नहीं कर सकते। दृष्टिकोण सम्यक् हो जाता है-ज्ञान, चारित्र और तप की सम्यक् आराधना होती है तो व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर लेता है, भले फिर वह किसी भी वेश या सम्प्रदाय में हो। इसके प्रमाण गृहलिंग सिद्ध और अभ्यलिंग सिद्ध हैं। सम्यक् दर्शन, चारित्र आदि की पूर्णता प्राप्त होने पर गृहस्थ के वेश में भी और जैनेतर सम्प्रदाय में भी मुक्ति प्राप्त हो सकती है। जैन-आगमों में 'असोच्चा' केवली का वर्णन है। जिस व्यक्ति को धर्मोपदेश सुनने का अवसर नहीं मिला, किन्तु सहज भाव से ही सरलता, क्षमा, सन्तोष आदि की आराधना करते-करते जो भावना-बल से सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र पाकर मुक्त हो जाता है, उसके क्रमिक विकास का हेतु धर्म की आराधना है, सम्प्रदाय विशेष का स्वीकार
नहीं।
१. सूत्रकृतांग १/१/१६ :
आगारमावसन्ता वि अरण्णा वा वि पव्वया । इमं दरिसणमावन्ना सव्वदुक्खा विमुच्चई।
भ्रम विध्वंसनम्, मिथ्यात्वी क्रियाधिकार, पृ. १-४६ २. नन्दीसूत्र, ४२ ___ अन्नलिंग सिद्धा, गिहीलिंग सिद्धा। ३. भगवती, ६/३०/३१ ४. मिथ्यात्वी करणी निर्णय, २.४६, ४७, ४६ :
इण रीते पहला तो समकत पामीयो रे, विभंग अनांण रो हुवो अवधिगिनांन रे। पछे अनुक्रमे हुवो केवली रे, पछे गयो पांचमी गति परधान रे॥ असोचा केवली हुवा इण रीत सूं रे, मिथ्याती थकां करणी तिण कीध रे। कर्म पतला पडयां मिथ्याती थकां रे, तिण सूं अनुक्रमे शिवपुर लीध रे॥ जो लेस्या परिणाम भला हूंता नहीं रे, तो किण विध पामंत विभंग अनांण रे। इत्यादि कीयां सं हो समकती रे, अनुक्रमें पोंहतो छ निरवाण रे॥
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