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प्रतिध्वनि : ६५
नहीं। दूसरी ओर वे भगवान् महावीर की भी एक जगह आलोचना करते हैं। भगवान् ने गोशालक को बचाने के लिए शीतल तेजोलेश्या नामक योगशक्ति का प्रयोग किया और वैशम्पायन ऋषि गोशालक को उष्ण तेजोलेश्या से मार रहा था, उससे उसे उबार लिया। आचार्य भिक्षु की साध्य-साधन की मीमांसा से यह कार्य आत्ममुक्ति का प्रमाणित नहीं होता। इसलिए उन्होंने कहा-इस प्रसंग में भगवान् की वीतराग-साधना में चूक हुई क्योंकि शक्ति का प्रयोग शुद्ध साधन नहीं है। इस आलोचना के लिए उन्हें बहुत कुछ सहना पड़ा है। उनके उत्तराधिकारी आचार्य भारमलजी ने उनसे प्रार्थना की-गुरुदेव! यह पद बहुत ही कटु है। आपने कहा-कटु तो है, पर सच से परे तो नहीं? भारमलजी ने कहा-नहीं, तब आपने कहा-रहने दो। यह निर्भीक आलोचना क्या की, मानो अपने लिए उन्होंने विरोध का मोर्चा खड़ा कर लिया। पर इससे उनकी सचाई का स्रोत फूट पड़ता है। श्रद्धा और आलोचना में कोई खाई नहीं है, यह उन्होंने प्रमाणित कर दिया।
'शत्रोरपि गुणा वाच्याः, दोषा वाच्याः गुरोरपि'-यह विशाल चिन्तन उनकी इस कृति से साकार बन गया। ७. धर्म का व्यापक स्वरूप जैन-धर्म पर आचार्य भिक्षु की अगाध श्रद्धा थी, पर वे जैन-धर्म को संकुचित अर्थ में नहीं मानते। उनकी वाणी है-भगवान् का मार्ग राजमार्ग है। वह कोई पगडंडी नहीं जो बीच में ही रुक जाये। वह तो सीधा मोक्ष का मार्ग
वे धर्म को एक मानते थे। मिथ्या दृष्टि की निरवद्य प्रवृत्ति धर्म है, इसका दृढ़तापूर्वक समर्थन कर उन्होंने जैन-परम्परा के उदार दृष्टिकोण को बहुत ही प्रभावशाली बना दिया। अमुक सम्प्रदाय का अनुयायी बनने से ही धर्म होता है अन्यत्र नहीं, इस भ्रमपूर्ण मान्यता का उनकी स्पष्ट वाणी
१. अणुकम्पा, ६.१२ :
छ लेस्या हूंती जद वीर में जी, हूतां आई कर्म। .
छदमस्थ चूका तिण समें जी, मूर्ख थापे धर्म॥ २. आचार्य सन्त भीखणजी, पृ. ८५ .
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