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५० : भिक्षु विचार दर्शन
पं. नेहरू की यह भाषा कि अधिकार के लिए प्रयत्न न हो, वह हो कर्तव्य के लिए-अधिकार स्वयं प्राप्त होता है-सहसा इसकी याद दिला देती है कि पुण्य के लिए धर्म न हो, वह आत्मशुद्धि के लिए हो, पुण्य स्वयं प्राप्त होता है। ___ साम्यवादी लक्ष्य की पूर्ति के लिए अशुद्ध साधनों को भी प्रयोजनीय मानते हैं। इसी आधार पर असाम्यवादी राजनयिक उनकी आलोचना करते हैं। वे अशुद्ध साधनों के प्रयोग को उचित नहीं मानते।
साध्य के सही होने पर भी अगर साधन गलत हों तो वे साध्य को बिगाड देंगे या उसे गलत दिशा में मोड़ देंगे। इस तरह साधन और साध्य में गहरा और अटूट सम्बन्ध है। वे दोनों एक-दूसरे से अलग किये जा सकते हैं।
दान सामाजिक तत्त्व है। वर्तमान समाज-व्यवस्था में उसके लिए कोई स्थान नहीं, यह समाज-सम्मत हो चुका है। दान के स्थान पर सहयोग की चर्चा चल पड़ी है। दुनिया में शारीरिक श्रम के बिना भिक्षा मांगने का अधिकार केवल सच्चे संन्यासी को है। जो ईश्वर-भक्ति के रंग में रंगा हुआ है, ऐसे सच्चे संन्यासी को यह अधिकार है।
आचार्य भिक्षु अध्यात्म की भूमिका पर बोलते थे। उनका चिन्तन मोक्ष की मान्यता के साथ-साथ चलता था। राजनीति की भूमिका उससे भिन्न है और उसका साध्य भी भिन्न है। इस भूमिका-भेद को ध्यान में रखकर हम सुनें तो हमें यही अनुभव होगा कि वर्तमान युग उसी भाषा में बोल रहा है, जिसमें आचार्य भिक्षु बोले थे। आज उन तथ्यों की घोषणा हो रही है, जिनकी आचार्य भिक्षु ने अभिव्यक्ति दी थी। २. साधना के पथ पर इस अभिव्यक्ति का इतिहास ज्वलंत साधना और कठोर तपस्या का इतिहास है। आचार्य भिक्षु अभिव्यक्ति देने नहीं, किन्तु सत्य की उपलब्धि के लिए चले थे। ईसा को फांसी और सुकरात को विष की प्याली ही नहीं मिली थी, कुछ और भी मिला था। आचार्य भिक्षु को रोटी-यातना ही नहीं मिली
१. सर्वोदय का सिद्धान्त, पृ. १३ २. विनोबा के विचार, पृ. १२०
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