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प्रतिध्वनि : ५१
थी, सत्य भी मिला था। प्रायः पांच वर्ष तक उन्हें पेट भर भिक्षा नहीं मिली। एक व्यक्ति ने पूछा-'महाराज! घी-गुड़ मिलता होगा? आपने उत्तर दिया-‘पाली के बाजार में कभी-कभी दीख पड़ता है।''
तेरापंथ की स्थापना उनका लक्ष्य नहीं था। उनका लक्ष्य था संयम की साधना। वे उस मार्ग पर चलने के लिए मृत्यु का वरण करने से भी नहीं हिचकते थे। उनके तथ्यों को लोग पचा सकेंगे, उनकी यह धारणा नहीं थी। उनके विचारों को मान्यता देने वाला कोई समाज होगा, यह कल्पना उन्हें नहीं थी। उनके पास जाना, उनसे धर्म-चर्चा करना सामाजिक अपराध था। लोग उनका विरोध करने में लीन थे। वे अपनी तपस्या करने में संलग्न थे। सतत विरोध और तपस्या ने एक तीसरी स्थिति उत्पन्न की। जन-मानस में आचार्य भिक्षु के महान् व्यक्तित्व के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न हुई। लोग रात में या एकान्त में छिप-छिपकर आने लगे। पर आचार्य भिक्षु अभिव्यक्ति से दूर अपनी साधना में ही रत थे। दो मुनि आये जो पिता और पत्र थे। उनका नाम था थिरपाल और फतेचंद। वे हाथ जोड़कर बोले- 'गुरुदेव! उपवास हम करेंगे, सूर्य की गर्मी से तपी हुई नदी की सिकता में हम लेटेंगे, आप ऐसा मत करें। आपकी प्रतिभा निर्मल है। आपसे सत्य की अभिव्यक्ति होगी। लोगों में जिज्ञासा जागी है। आप उन्हें प्रतिबोध दे।' उनका विनय-भरा अनुरोध उन्होंने स्वीकार किया और मौन को उपदेश में परिणत कर दिया।
___ अपने ध्येय के प्रति आचार्य भिक्षु की गहरी निष्ठा थी। उसी से उनमें तितिक्षा का उदय हुआ। उन्होंने बहुत सहा, शारीरिक कष्ट सहे, तिरस्कार सहा, गालियां सही और कभी-कभी घूसे भी सहे। ठहरने के लिए स्थान की कठिनाई थी। लोग पीछे पड़ रहे थे। नाथद्वारा की घटना है-वे चातुर्मास कर रहे थे। दो मास बीते और राजा का आदेश हुआ कि वे वहां से चले जाएं। उनके शेष दो मास 'कोठारिया' गांव में बीते। __ घाणेराव के कई व्यक्ति मिले। उन्होंने पूछा- 'तुम कौन हो? मैं भीखण
१. भिक्षु जस रसायण, १०, सोरठा १
पंच वर्ष पहिछाण रे, अन पिण पूरो नां मिल्यो।
बहुल पणे वच जांण रे, घी चौपड़ तौ ज्यांहीई रह्यो। २. भिक्षु जस रसायण, ६, पृ. १०
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