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८२ : भिक्षु विचार दर्शन उनकी प्रार्थना के उत्तर में कहा-राजकन्या का आग्रह है कि या तो वह जीएगी अथवा वैश्य-पुत्र। दोनों एक साथ नहीं जी सकते। राजा ने कहा-आप कहिए, मैं किसे मारूं? नागरिक अवाक् हो वापस चले आए। राजकन्या के लिए वैश्य-पत्र मारा गया।
राज्यसत्ता शक्ति का जाल है। उसमें जो फंसे उन्होंने इसे क्षम्य मान लिया। पर अहिंसा आत्मा की सहज पवित्रता है। वह एक के लिए दूसरे की बलि को कभी भी क्षम्य नहीं मान सकती। जो लोग अहिंसा के क्षेत्र में राजतन्त्र की परम्परा को निभा रहे थे, उनके विरुद्ध आचार्य भिक्षु ने विद्रोह किया। उनकी वाणी ने घोषित किया :
- "छोटे जीवों को मारकर बड़ों का पोषण करने को जो अहिंसा कहते हैं, वे छोटे जीवों के दुश्मन हैं।"
उनका दयार्द्र मन कह उठा-"ये छोटे जीव अपने अशुभ कर्म भुगत रहे हैं, लोग इन्हें सता रहे हैं और उनके द्वारा बड़े जीवों के पोषण में पुण्य बतलाने वाले ये भेषधारी उठ खड़े हुए हैं।" छोटे और बड़े जीवों में शरीर
और ज्ञान की मात्रा का तारतम्य है। आत्मत्व की दृष्टि से सब जोव समान हैं। अहिंसा और हिंसा की नाप छोटा-बड़ा आकार नहीं है। वह राग-द्वेषात्मक प्रवृति के भाव और अभाव से नापी जाती है।
आवश्यक हिंसा, हिंसा नहीं है; बहुतों के लिए थोड़ों की हिंसा, हिंसा नहीं है; बड़ों के लिए छोटों की हिंसा, हिंसा नहीं है-इन धारणाओं का मुल रागात्मक प्रवृत्ति है और इनका आचरण भी रागात्मक है। इसलिए यह सारा हिंसा पक्ष है।
जीव जीव का जीवन है-यह प्राणी की विवशता है पर अहिंसा नहीं हैं।
बहुसंख्यकों के हित के लिए अल्पसंख्यकों का अहित क्षम्य है, यह जन-तन्त्र का सिद्धान्त है पर अहिंसा नहीं है।
१. व्रताव्रत, ७-४ :
रांकां ने मार धींगां में पोख्यां, ए तो बात दीसे घणी गेरी।
तिण मांहें दुष्टी धर्म बतावे, ते रांक जीवां रा उठ्या वेरी॥ २. वही, ७-५
पाछिल भव पाप उपाया तिण सूं, हुआ एकेन्द्री पुन परवारी। त्यां रांक जीवां रे उसभ उदे तूं, लोकां सहित लागू उठ्या भेषधारी॥
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