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साध्य-साधना के विविध पहलू : ८१ प्रेम-धर्म का शुद्ध रूप भी बतलाया। इसका पूर्णता से पालन मुझसे इस जन्म में न हो सके तथापि इस सम्बन्ध की मेरी श्रद्धा तो अविचल रहेगी।"
वर्तमान का नीतिशास्त्र कहता है-'ग्रेटेस्ट गुड ऑफ दी ग्रेटेस्ट नम्बर'-अधिक से अधिक लोगों का अधिक से अधिक सुख या हित हो। इसमें विरोधी हितों की कल्पना है। बहुसंख्यकों के लिए अल्पसंख्यकों के बलिदान को उचित माना गया है। इसी सिद्धान्त ने बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक का झगड़ा खड़ा किया है। नीतिशास्त्र की इस मान्यता पर राजनीति का प्रभाव है। एक-तन्त्र की प्रतिक्रिया जनतन्त्र के रूप में हुई। जनतन्त्र का अर्थ है-अल्पसंख्यकों पर बहुसंख्यकों का राज्य और बहुमत के सामने अल्पमत की पराजय। इस भावना का प्रतिविम्ब नीतिशास्त्र पर पड़ा और वह सर्वभूत-आत्मभूत की बात भूल गया।
मध्यकालीन धर्मशास्त्र के व्याख्याता भी इस भूल से अपने को बचा नहीं सके। उन्होंने भी बहुमत का साथ दिया। इसलिए आचार्य भिक्षु ने क्रान्ति के स्वर में कहा____ "बहुतों के हित के लिए थोड़ों के हित को कुचल देना उतना ही दोषपूर्ण हैं जितना कि थोड़ों के हित के लिए बहुतों को कुचलना। एक आदमी सौ रोगी मनुष्यों को स्वस्थ करने के लिए 'ममाई' करता है--एक मनुष्य के शरीर को क्षत-विक्षत कर खून निकालता है-एक आदमी सिंह
और कसाई को मारकर अनेक जीवों को मृत्यु के मुंह में जाने से बचाता है। इनमें धर्म बताने वालों की श्रद्धा विशुद्ध नहीं है।"
राजतन्त्र में राजा के जीवन का असीम मूल्य था। उसकी या उसके परिवार की इच्छा की वेदी पर मनुष्यों तक की बलि हो सकती थी। एक पौराणिक कथा के अनुसार एक राजकन्या की इच्छा पर राजा ने वैश्य-पुत्र को मारने की आज्ञा दे दी। प्रमुख नागरिक राज्यसभा में गए। राजा ने
१. व्यापक धर्म भावनाः जीवमात्र की एकता, पृ. ६, १० २. अणुकम्पा : ७. १०-२७
मरता देखी सो रोगला, ममाइ विण होते तो साजा न थाय। कोई ममाइ कर मिनष री, सो जणां रे हो साता कीधी बचाया। कोई नाहर कसाइ मारनें, मरता राख्या हो घणां जीव अनेक। जो गिणे दोयां में सारखा, त्यारी बिगड़ी हो सरधा वात ववेक!!
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