________________
भूमिका : २३
"भिक्षुओ, ये दो सुख हैं।" "कौन से दो?'
"भौतिक-सुख और अभौतिक-सुख । भिक्षुओ, ये दो सुख हैं। भिक्षुओ, इन दोनों सुखों में अभौतिक-सुख श्रेष्ठ है।"
आचार्य धर्मदासगणी का अभिमत है-“तीर्थकर भगवान् बलात् हाथ पकड़कर किसी को हित में प्रवृत्त और अहित से निवृत्त नहीं करते। वे उपदेश देते हैं। उत्पथ पर चलने से होने वाले परिणामों का ज्ञान देते हैं। उसे जो सुनता है, वह मनुष्यों का नहीं, देवताओं का भी स्वामी होता है।"
आचार्य भिक्षु ने जो कहा, वह उनके पश्चात् भी कहा गया है। महात्मा गांधी ने अहिंसा के ऐसे अनेक तथ्यों को प्रकाशित किया है, जिनका आचार्य भिक्षु के अभिमत से गहरा सम्बन्ध है। उन्होंने लिखा है
१. यह यथार्थ है कि मैंने भावना को प्राधान्य दिया है, किन्तु अकेली भावना से अहिंसा सिद्ध नहीं हो सकती। यह सच है कि अहिंसा की परीक्षा अन्त में भावना से होती है, किन्तु य भी उतना ही सच है कि कोरी भावना से ही अहिंसा न मानी जाएगी। भावना का माप भी कार्य पर से ही निकालना पड़ता है और जहां स्वार्थ के वश होकर हिंसा की गयी है, वहां भावना चाहे कितनी ही ऊंची क्यों न हो, तो भी स्वार्थमय हिंसा ही रहेगी। इससे उल्टे जो आदमी मन में वैर-भाव रखता है, किन्तु लाचारी से उसे काम नहीं ला सकता, उसे वैरी के प्रति अहिंसक नहीं कहा जा सकता। क्योंकि उसकी भावना में वैर छिपा हुआ है। इसलिए अहिंसा का माप निकलने में भावना और कार्य दोनों की परीक्षा करनी होती है। .
२. धर्म संयम में है, स्वच्छन्दता में नहीं । जो मनुष्य शास्त्र की दी हुई. छूट से लाभ नहीं उठाता, वह धन्यवाद का पात्र है। संयम की कोई
१. अंगुत्तर निकाय, प्रथम भाग, पृ. ८२ २. उपदेशमाला, श्लोक ४८८
अरिहंता भगवंतो, अहियं व हियं व न वि इहं किंचि।
वारंति कारवंति य, धित्तूण जणं बला हत्थे। ३. उपदेशमाला, श्लोक ४४६ :
उवएसं पुणं तं दिति, जेण चरिएण कित्तिनिलयाणं।
देवाण वि हुंति पहू, किमंग पुण मणुअमित्ताणं॥ ४. अहिंसा, प्रथम भाग, पृ. ११५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org