SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संघ-व्यवस्था : १७३ है जो अपने स्वभाव पर नियन्त्रण न रख सके। उन्होंने लिखा १. कोई साधु रुग्ण हो या बूढ़ा हो तब दूसरे साधु अग्लान भाव से वैयावृत्त्य-सेवा करें। २. उसे संलेखना-विशिष्ट तपस्या करने को न उकसाएं। ३. वह विहार करना चाहे और उसकी आंखें दुर्बल हो तो दूसरा साधु उसे देख-देख चलाए। ४. वह रुग्ण हो तो उसका बोझ दूसरे साधु लें। ५. उसका मन चढ़ता रहे वैसा कार्य करें। ६. उसमें साधुपन हो तो उसे 'छेह' न दें-छोड़ें नहीं। ७. वह अपनी स्वतन्त्र भावना से वैराग्यपूर्वक संलेखना करना चाहे तो उसे सहयोग दें, उसकी सेवा करें। ८. कदाचित् एक साधु उसकी सेवा करने में अपने को असमर्थ माने तो सभी साधु अनुक्रम से उसकी सेवा करें। ६. कोई सेवा न करे तो उसे टोका जाए और उससे कराई जाए। . १०. रुग्ण साधु को सब साधु इकट्ठे होकर जो कहें, वह आहार दिया जाए। . ११. किसी साधु का स्वभाव अयोग्य हो, जिसे कोई निभा न सके, जिसे कोई साथ न ले जाए, तब उसे विनम्र व्यवहार करना चाहिए। बड़े साधु जैसे चलाएं वैसे चले । विनम्र व्यवहार में न लग सके तो वह तपस्या में लग जाए। इन दोनों में से कोई कार्य न करे तो उसके साथ फिर कौन क्लेश करता रहेगा? १२.रोगी की अपेक्षा स्वभाव का अयोग्य अधिक दुःखदायी होता है। उसे गण में रखना अच्छा नहीं है। १३. जो मर्यादाओं को स्वीकार करे उसे गण में रखा जाए। योग्य व्यक्ति गण में होते हैं, उससे गण की शोभा बढ़ती है और साधना का पथ भी सरल बनता है। अयोग्य व्यक्ति में साधना का भाव नहीं होता, अपनी प्रकृति पर वह नियन्त्रण करना नहीं चाहता या कर नहीं पाता। उससे गण की अवहेलना होती है और दूसरों को भी बुरा बनने का १. लिखित : १८४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003095
Book TitleBhikshu Vichar Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy